Monday 27 October 2014

विदेशों में कालाधन?




विदेशों में कालाधन?

21, AUG, 2014, THURSDAY 

ललित सुरजन
जब 1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने ''रॉ'' के तमाम दस्तावेजों की छानबीन इस उम्मीद से करवाई कि इंदिरा-गांधी और संजय गांधी ने इस गुप्तचर संगठन का दुरुपयोग अपने निजी लाभ के लिए किस तरह किया होगा। यूं तो इस जांच से कुछ भी हासिल नहीं हुआ, लेकिन वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक की फाइलों में एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिससे सरकार ने यह समझा कि ''रॉ'', उसके प्रमुख आर.एन. काव, उपप्रमुख शंकरन नायर को कटघरे में खड़ा करना मुमकिन होगा। यह प्रकरण आपातकाल का था जिसमें श्री नायर को जिनेवा के एक बैंक खाते में छह मिलियन डॉलर जमा करने भेजा गया था। मोरारजी देसाई को संदेह हुआ कि हो न हो, यह खाता संजय गंाधी का है। जब छानबीन पूरी हुई तो मामला कुछ और ही निकला। 1974 के पोखरण आण्विक प्रयोग के बाद अमेरिकी सरकार ने भारत को दी जाने वाली सहायता में भारी कटौती कर दी थी। देश में गंभीर आर्थिक संकट था। तब भारत सरकार ने ईरान के शाह से दो सौ पचास मिलियन डॉलर का कर्ज आसान शर्तों पर मांगा था। इसके लिए इंदिरा सरकार ने हिन्दूजा बंधुओं की सेवाएं लीं (जिनके बहुत अच्छे संबंध शाह के साथ थे)। उन्होंने शाह की बहन अशरफ पहलवी के माध्यम से ऋण हेतु आवेदन करवाया और शाह ने भारत को सहायता देना स्वीकार कर लिया। इस राशि का एक हिस्सा कर्नाटक की कुदुर्मुख लौहअयस्क परियोजना में लगना था और दूसरे भाग का उपयोग देश की आवश्यक वस्तुओं की आयात करने के लिए होना था। शाह की बहन अशरफ पहलवी ने इस ऋण पर छह मिलियन डॉलर का कमीशन अपने एक ईरानी नागरिक रशीदयान को देने के लिए कहा। यह व्यक्ति अशरफ का घनिष्ठ मित्र था। हिन्दूजा के माध्यम से भारत सरकार को संदेश मिलने पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जिनेवा के एक बैंक को टेलेक्स पर इस राशि का ड्राफ्ट बनाकर श्री नायर को सौंपने का निर्देश दिया। इसके बाद वित्त मंत्रालय ने श्री काव से आग्रह किया कि नायर जिनेवा जाकर बैंक ड्राफ्ट हासिल कर लें और उसे रशीदयान के खाते में जमा कर दें। बात यहां खत्म हो गई।
ये सारे तथ्य प्रकाश में आए तो मोरारजी देसाई ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा तथा बिना किसी अगली कार्रवाई के फाइल बंद कर दी। हिन्दूजा संजय गांधी के जितने करीब थे उससे कहीं ज्यादा उनकी घनिष्टता मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी से थी। जब उन्हें समझ में आया कि कमीशन हिन्दूजा की सिफारिश पर दिया गया है। तब फिर स्वाभाविक ही बात आगे बढ़ाने की उन्हें इच्छा नहीं रही। यह सुदीर्घ उद्धरण मैंने बी. रामन की पुस्तक ''द काव बॉय•ा ऑफ आर. एण्ड ए.डब्ल्यू: डाउन मेमौरी लेनÓÓ से लिया है। पुस्तक 2007 में प्रकाशित हुई थी और मैं इसे प्राप्त नहीं कर सका था।  कुछ दिन पहले अपने मित्र डॉ. परिवेश मिश्र की निजी लाइब्रेरी से पुस्तक मिली तो उसे पढ़ते हुए यह प्रसंग सामने आया। बी. रामन का निधन पिछले साल ही हआ है। वे मध्यप्रदेश कैडर के 1961 बैच के आईपीएस अधिकारी थे तथा 1965-66 में दुर्ग में जिला पुलिस अधीक्षक के पद पर भी कुछ समय रहे थे। वहां कुछ लोगों को शायद अब भी श्री रामन की याद हो! बहरहाल, ऊपर मैंने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे मैं वर्तमान संदर्भों से जोड़कर पाठकों के सामने रखना चाहता हूं, लेकिन इसके पहले श्री रामन की किताब के पहले अध्याय का एक अंश का •िाक्र करने की अनुमति कृपया मुझे दें। यह कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है कि अपनी आत्मकथा के पहले पन्ने पर ही श्री रामन ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रति क्रोध और नफरत का इजहार किया है। संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि अमेरिका किस तरह से भारत की बाँहें मरोडऩे में लगा रहता था इसका ही वर्णन लेखक ने किया है। श्री रामन ने छब्बीस साल ''रॉÓÓ में बिताए। वे देश के एक आला गुप्तचर थे। उन्होंने सेवानिवृत होने के बाद मिले तमाम ऑफरों को ठुकरा दिया था। ऐसे व्यक्ति की बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं बनता। खैर, बी. रामन ने जनता सरकार के समय के जिस किस्से का वर्णन किया है वह भारत में पिछले कुछ समय से काले धन को लेकर चल रही बहस की ओर हमें ले जाता है। देश में कितना काला धन है या वह अर्थव्यवस्था का कितना प्रतिशत है जैसे तकनीकी विवरणों में पैठने की क्षमता मेरे पास नहीं है, किन्तु इतना अवश्य समझ में आता है कि काले धन के बारे में हो रही बड़ी-बड़ी बातें सच्चाई को पूरी तरह से बयान नहीं करती। जो लोग मोदी सरकार बनने के अगले दिन विदेशों में जमा काले धन को वापिस लाने का वायदा कर रहे थे, वे अब पूरी तरह से चुप हैं। इस विषय को जोर-शोर से उठाने वाले बाबा रामदेव न सिर्फ रहस्यमय तरीके से मौन हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि वे अंर्तध्यान हो गए हैं! वे मोदीजी के शपथ ग्रहण से लेकर आज तक कहां हैं, यह वेदप्रताप वैदिक आदि  उनके निकट सहयोगियों को ही पता होगा! हमें एक सीधी बात समझ में आती है कि सरकार चलाने के लिए बहुत से प्रपंच करना पड़ते हैं। इंदिराजी के समय विदेशी मुद्रा की दरकार थी तो ईरान के शाह से उस तरह से सहायता नहीं मांगी जा सकती थी, जैसे कि आप या हम आवश्यकता पडऩे पर किसी दोस्त या रिश्तेदार से पैसे मांग लेते। इसलिए इंदिराजी को हिन्दूजा बंधुओं से बात करना पड़ी, उन्होंने शाह की बहन से बात की जिसने अपने भाई से कहकर काम तो करवा दिया, लेकिन साथ-साथ अपने दोस्त का भी भला कर दिया। जनता पार्टी सरकार आई तो उसे भी अपने दोस्त हिन्दूजा का लिहाज करना पड़ा। मतलब यह कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुत से दरवाजों से गुजरना पड़ता है। उस दौर में विदेश नीति और अर्थनीति के बीच तब भी एक दूरी थी, लेकिन आज तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। आपके वैदेशिक संबंध बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करते हैं कि किसी देश के साथ आपका खरीद बिक्री का क्या रिश्ता है।जो भी व्यक्ति व्यापार व्यवसाय की थोड़ी सी समझ रखता है वह जानता है कि कोई भी सौदा बिना भाव-ताव के तय नहीं होता। जब सौदे का आकार बड़ा होता है तो कमीशन की रकम भी बढ़ जाती है। निजी कंपनियों में तो यह होता ही है, सरकारी कंपनियों को भी इसके लिए एजेंट नियुक्त करना पड़ते हैं क्योंकि वे सीधे-सीधे कमीशन का लेन-देन नहीं कर सकते। इस दृष्टि से देखें तो पहले या आज जब भी सरकार या सरकारी उपक्रमों ने बड़े-बड़े सौदे किए हैं तो उसमें मध्यस्थों की भूमिका होना ही थी। शायद यही वजह है कि चाहे बोफोर्स का मामला हो, चाहे आगुस्ता वेस्टलैण्ड का, चाहे कुछ और। इस सबमें विपक्ष को हल्ला मचाने के लिए और सत्ता पक्ष पर आक्रमण करने के लिए अवसर जरूर मिल जाता है, लेकिन वे स्वयं जब सत्ता में आते हैं तो चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। अमेरिका से लेकर जापान तक सब जगह यही दस्तूर है। भारत में यदि हल्ला मचता है तो वह हमारी राजनीति की अपरिपक्वता को दर्शाता है। यह तस्वीर का एक पहलू है। ऐसे सौदों के मार्फत यदि कोई राजनीतिक दल पार्टी फंड इकट्ठा करें तो उसे कैसे अपराध माना जाए, मैं नहीं जानता। हां! यदि पार्टी फंड का इस्तेमाल निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए किया गया हो तो वह क्षमा योग्य नहीं है। तस्वीर का दूसरा पहलू वह कालाधन है जो निजी क्षेत्र द्वारा टैक्स चोरी आदि से उत्पन्न होता है और विदेश भेजकर मॉरिशस, दुबई या सिंगापुर जैसे रास्तों से वापस आ जाता है। इस तरह का धन संचय जहां अपराधों को बढ़ावा देता है वहीं इससे समाज में गैरबराबरी और असंतोष भी बढ़ता है। जो व्यक्ति इस तरह से पैसा कमाते हैं उनके मन में न तो देशप्रेम का भाव होता है और न देश की जनता के प्रति वे अपनी कोई जवाबदारी महसूस करते हैं। इसके विपरीत वे अपने पैसे के बल पर राजनेताओं को खरीदते हैं तथा उनसे अपने हित में गलत-सलत निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं। यही लोग ''कौआ कान ले गयाÓÓ की तर्ज पर विदेशों में कालाधन का मुद्दा उठाते हैं ताकि इनके अपने अपराधों पर परदा पड़ा रहे।
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काले धन का जवाब

Sun, 19 Oct 2014

इसमें दोराय नहीं हो सकती कि काले धन के मामले में केंद्र सरकार के इस जवाब से लोगों को निराशा हुई है कि जिन देशों से दोहरे कराधान संबंधी संधि है वहां काला धन जमा करने वाले भारतीयों के नाम उजागर नहीं किए जा सकते। ध्यान रहे कि यह वही जवाब है जो मनमोहन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिया था और जिसके चलते उसकी चौतरफा आलोचना हुई थी। आलोचना करने वालों में भाजपा भी शामिल थी। क्या यह अजीब नहीं कि भाजपा ने जिस जवाब के लिए पिछली सरकार की घेरेबंदी की वही जवाब उसने भी देना पसंद किया? केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह आभास होना चाहिए था कि काले धन के मामले में पिछली सरकार जैसा जवाब दाखिल करने पर जनता में कैसी प्रतिक्रिया होगी? यह सही है कि केंद्र सरकार के इस जवाब के लिए दोहरे कराधान संबंधी संधि उत्तारदायी है और उसे आनन-फानन नहीं बदला जा सकता, लेकिन यह संधि कोई पत्थर की लकीर भी नहीं हो सकती। ऐसी किसी संधि को तो प्राथमिकता के आधार पर बदलने की कोशिश होनी चाहिए जो कुल मिलाकर काला धन बटोरने और जमा करने वालों के हितों की रक्षा करती हो। यह एक किस्म की अनैतिक संधि है। यह समझना कठिन है कि क्या सोचकर 1995 में यह संधि की गई? काले धन के मामले में कम से कम उन लोगों को तो शोर मचाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता जिन्होंने इस संधि को आकार दिया। क्या कोई बताएगा कि किन कारणों के चलते काले धन के खातों के मामले में स्वर्ग माने जाने वाले देशों के साथ ऐसी संधि की गई? सवाल यह भी है कि काले धन पर तमाम हल्ला-गुल्ला मचने के बावजूद किसी ने इस संदिग्ध किस्म की संधि से पीछा छुड़ाने के बारे में क्यों नहीं सोचा?
यह संतोषजनक है कि काले धन पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार के जवाब पर मचे शोर-गुल के बाद वित्तामंत्री अरुण जेटली ने यह स्पष्ट किया कि सरकार काला धन रखने वालों का पता लगाने, उनके नाम सार्वजनिक करने और उन्हें दंडित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया है कि इस मामले में सरकार एक परिपक्व दृष्टिकोण के साथ सामने आएगी। उनके इस आश्वासन पर यकीन न करने कोई कारण नहीं, लेकिन बेहतर होता कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में ऐसे ही दृष्टिकोण से लैस होकर पहुंचती। मोदी सरकार से यह भी वांछित है कि वह दोहरे कराधान संबंधी संधि पर नए सिरे से विचार करे। मौजूदा हालात में यह आवश्यक भी है और पहले के मुकाबले आसान भी, क्योंकि अब सभी देश यह महसूस कर रहे हैं कि काले धन का कारोबार करने वाले अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के साथ संबंधित देश की छवि खराब करने का भी काम कर रहे हैं। चूंकि ऐसे कारोबारी हर देश में सक्रिय हैं इसलिए सभी देशों और विशेष रूप से काला धन जमा करने में विशेष सहूलियत देने वाले देशों को अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करना ही होगा। यदि वे ऐसा करने में आनाकानी करते हैं तो भारत को उन देशों के साथ मिलकर कोई पहल करनी चाहिए जहां के लोगों ने बड़े पैमाने पर विदेशों में काला धन जमा कर रखा है। इस मामले में अमेरिका की तरह भारत को भी सख्त रवैया अपनाने की जरूरत है।
[मुख्य संपादकीय]
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उलटा रुख

जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: देश से बाहर जमा काले धन को वापस लाएंगे, लोकसभा चुनाव में भाजपा का यह एक खास मुद््दा था। नरेंद्र मोदी अपनी हर चुनावी रैली में यह वादा जोर-शोर से दोहराते थे। उन्होंने कहा था कि बाहर के विभिन्न बैंकों में चोरी-छिपे देश के अरबों-खरबों रुपए जमा हैं; वे देश की पाई-पाई वापस लाएंगे, वह सारा पैसा गरीबों में बांट देंगे। कभी कहा कि हर गरीब परिवार के हिस्से करीब पंद्रह लाख रुपए आएंगे, कभी कहा कि हर गरीब आदमी को तीन लाख रुपए हासिल होंगे। पार्टी के अन्य तमाम नेता भी यही राग अलापते थे कि बाहर जमा काला धन जल्दी ही वापस आएगा, बस भाजपा के सत्ता में आने की देर है। लेकिन केंद्र की सत्ता संभालने के पांच महीने बाद अब भाजपा भी वही कह रही है जो कांग्रेस कहती थी। काले धन पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान पिछले हफ्ते मोदी सरकार ने कहा कि वह विदेशों में गुप्त खाता रखने वाले भारतीयों के नाम उजागर नहीं करेगी, क्योंकि ऐसा किया गया तो काले धन संबंधी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए भारत से समझौता कर चुके देश नाराज हो जाएंगे। यही बात यूपीए सरकार भी कहती थी कि दोहरे कराधान से बचाव के समझौते खुलासे के आड़े आ रहे हैं। तब भाजपा नेताओं को यह दलील निरी बहानेबाजी लगती थी। उन्होंने यूपीए सरकार के हर स्पष्टीकरण को खारिज करते हुए काले धन की वापसी को लेकर उसके गंभीर न होने, यहां तक कि उस पर दोषियों को बचाने का भी आरोप मढ़ा था। पर अब मोदी सरकार का भी रुख वही है जो यूपीए सरकार का था। और अब स्वामी रामदेव खामोश हैं, जिन्होंने काले धन की वापसी को लेकर आंदोलन चलाया था! वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सारी अड़चन उन समझौतों की वजह से आ रही है जो पिछली सरकार ने किए थे। अगर यह बाधा दूर की ही नहीं जा सकती, तो भाजपा ने सत्ता मिलने पर काला धन वापस लाने का वादा क्यों किया?

क्या यह कहना गलत होगा कि भाजपा इस मामले में शुरू से सब्जबाग दिखाती रही है? जिनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने बाहर जमा काले धन की जांच के लिए विशेष टीम के गठन का आदेश दिया था, उन्होंने यानी राम जेठमलानी ने मोदी सरकार की दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया है, यह कहते हुए कि ये दलीलें आरोपियों को ही शोभा देती हैं, सरकार को नहीं। सर्वोच्च अदालत ने अंतरराष्ट्रीय करारों की आड़ लेने पर यूपीए सरकार को खरी-खोटी सुनाई थी और यह तक कहा था कि अगर ये करार बाधक साबित हो रहे हैं, तो अच्छा होगा कि ऐसे करार न किए जाएं। तब यूपीए सरकार जिस कठघरे में खड़ी थी, अब मोदी सरकार भी वहीं नजर आ रही है। सवाल यह भी उठता है कि अगर मोदी सरकार सचमुच काले धन पर अंकुश लगाने और उसे पकड़ने के लिए संजीदा है, तो उसका प्रवाह बंद करने के लिए वह क्या कर रही है। काला धन केवल वही नहीं है जो स्विस बैंकों और इस तरह के अन्य विदेशी ठिकानों में जमा है। रिश्वतखोरी और शेयर बाजार में पहचान छिपा कर निवेश करने से लेकर फर्जी कंपनियां खड़ी करने तक काले धन की ढेर सारी प्रक्रियाएं हैं। चुनाव में भी बड़े पैमाने पर काला धन इस्तेमाल होने की बात कही जाती है। इस सारे गोरखधंधे को बंद करने के कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं?
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यह सियासी मुद्दा नहीं

नवभारत टाइम्स| Oct 27, 2014,

मशहूर वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम जेठमलानी ने कालेधन के मामले में सरकार की भूमिका पर अपनी नाराजगी जताई है। उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली को चिट्ठी लिखकर उनकी खूब खिंचाई की है। जेठमलानी ने इस बारे में पीएम को भी पत्र लिखने का फैसला किया है। राजनीति में जेठमलानी की भले ही विवादास्पद छवि बनी हुई हो, मगर काला धन के खिलाफ उनके अभियान की गंभीरता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं, जिनसे सरकार नजरें नहीं चुरा सकतीं। उनका आरोप है कि नई सरकार इस मुद्दे पर लीपापोती में जुट गई है।

जेठमलानी जैसे कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो पिछले चुनावों में काला धन को मुद्दा बनाने वालों के बारे में कहना मुश्किल है कि वे इसे लेकर कितना गंभीर थे। जिस हल्के तरीके से इसे उठाया गया और गैर जिम्मेदार ढंग से बड़ी-बड़ी राशियां बताई गईं ,उससे यह संदेह होना स्वाभाविक था कि तमाम बयानों का असल मकसद इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर भुनाना था। अफसोस की बात यह है कि चुनाव जीतने और सत्ता में आने के बाद भी बीजेपी का नजरिया बहुत बदला नहीं है। सरकार ने पहले तो कोर्ट में काला धन रखने वालों के नाम बताने में असमर्थता जताई, फिर कुछ नाम बताने के लिए तैयार भी हो गई। बाद में अरुण जेटली ने कहा कि अगर हमने नाम बता दिए तो कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी।

इन सबसे तो यही लगता है कि सरकार अब भी इसे मूलत: एक राजनीतिक मुद्दा मान कर चल रही है। मगर आम जनता इस मसले पर बेहद गंभीर है। लोग चाहते हैं कि बीजेपी की अगुवाई वाली यह सरकार अपना चुनावी वादा पूरा करते हुए विदेशों में जमा काला धन वापस लाए ताकि उन्हें महंगाई और टैक्स के बोझ से थोड़ी राहत मिले। लेकिन गवर्नमेंट का रवैया टालमटोल का ही दिखता है। जहां तक अदालत में दिए गए सरकारी हलफनामे की बात है तो उसके औचित्य पर अदालत फैसला करेगी। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि काला धन एक बड़ा मसला है और अदालत में चल रहा मुकदमा या एसआईटी की जांच इसका एक बहुत छोटा पक्ष है।

विदेशी बैंकों में पड़ा काला धन तो एक बात है, लेकिन जो ब्लैक मनी विदेशों से हमारी अर्थव्यवस्था में अलग-अलग तरीकों से डाली जा रही है, उस पर अंकुश लगाने के लिए सरकार क्या कर रही है? देश के अंदर जो काला धन लगातार बन और फल-फूल रहा है, उसके बारे में भी उसकी कोई चिंता अभी तक नहीं दिखी है। ऐसे में जरूरी है कि मोदी सरकार राजनीति छोड़ कर इस मसले पर पूरी ईमानदारी से देश के सामने स्थिति स्पष्ट करे। जो कुछ वह कर सकती है, उसे जल्द से जल्द अंजाम दे और जो नहीं कर सकती, उसके बारे में भी खुलकर बताए। कम से कम लोग इस बारे में किसी भ्रम में न रहें।
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जन दबाव से ही आएगा काला धन

मोदी सरकर ने अपनी कैबिनेट की पहली बैठक में जो इकलौता फैसला किया था, वह था कालेधन की जांच और निगरानी के लिए विशेष जांच दल के गठन का। जिस तरह त्वरित तौर पर यह फैसला लिया गया, सरकार को काफी बधाई मिली। लेकिन अब एक बार फिर यह सवाल पैदा हो गया है कि क्या काले धन का खुलासा और इसे वापस लाने का मसला सिर्फ चुनावी मुद्दा बना रहेगा? चंद दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के हलफनामे में यह मजबूरी बताई गई कि विदेशी बैंकों के खाताधारकों के नाम का खुलासा नहीं किया जा सकता, क्योंकि सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि यानी डबल टैक्सेशन एवॉयडेंस ट्रीटी से बाध्य है। इस संधि के मुताबिक जब तक किसी के खिलाफ इनकम टैक्स का मामला कोर्ट में दर्ज नहीं हो जाता, तब तक उसका नाम सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। यहां विपक्ष का यह सवाल उठाना वाजिब है कि जब बीजेपी को यह बात पहले से पता थी तो जनता को क्यों गुमराह किया गया। हालांकि अब बीजेपी कह रही है कि वह दरअसल कांग्रेस सरकार के दौरान की गई संधि के कारण बेबस है। सरकार पर जब थोड़ा दबाव पड़ा और उसे लगने लगा कि आम लोग उसके इस तर्क से सहमत नहीं होंगे तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि अगर विदेशों में काला धन रखने वालों का नाम सामने आता है तो कांग्रेस को ही शर्मिदगी उठानी पड़ेगी। जाहिर है, कांग्रेस की तरफ से इस बयान पर तीखा जवाब दिया गया और चुनौती दी गई कि सरकार पूरे 800 नाम सामने लाए। दरअसल सरकार इससे पहले सुप्रीम कोर्ट को 136 लोगों के नाम बताने को तैयार हुई थी। यहां सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों वह नाम सार्वजनिक करने को तैयार नहीं और फिर वह क्यों केवल 136 नाम ही कोर्ट को देने की तैयारी में जुटी है? क्या ये नाम ऐसे हैं जिन्हें सामने रखने से उसे राजनीतिक लाभ मिलने वाला है? क्या 800 नामों में वैसे लोग भी शामिल हैं जिन्हें बीजेपी सरकार इसलिए सामने नहीं लाना चाहती कि इससे उसे नुकसान होगा। गौरतलब कि महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में कांग्रेस ने यह बात लोगों के सामने जोरशोर से रखी कि प्रधानमंत्री के उस वादे का क्या हुआ जिसमें 100 दिन के भीतर काला धन वापस लाने की बात कही गई थी। लोगों ने हालांकि बीजेपी के पक्ष में मतदान किया लेकिन कहीं न कहीं काले धन को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता के लेकर उनके मन में भी संदेह आया होगा। लोग स्वाभाविक तौर पर यह चाहते हैं कि सरकार नाम जाहिर करने में ठोस इच्छाशक्ति दिखाए। जनता चाहती है कि सरकार काले धन के खुलासे की राह में मौजूद हर अड़चन को दूर करे। ऐसा नहीं होता है तो विपक्ष इस मुद्दे को आगामी महीनों में होने वाले चुनावों में हथियार के तौर पर आजमाएगा। गौर करने वाली बात है कि भाजपा काफी लंबे समय से काले धन की वापसी का मसला उठाती रही है। 2009 के चुनाव के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया था और पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने। ऐसे में स्वाभाविक था कि सरकार इस मसले पर अपना ध्यान केंद्रित करती और इस मुद्दे पर राजनीति न करते हुए जनता का दिल जीतती। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि विदेशों में मौजूद काले धन की अगर देशवापसी होती है तो आर्थिक मोर्चे पर परेशानी झेल रहे देश को काफी हद तक राहत मिलेगी। अमेरिकी संस्था जीएफआई के 2008 के अनुमान के मुताबिक भारत का करीब 23 लाख करोड़ काला धन और भारतीय उद्योग एवं वाणिज्य परिसंघ ‘फिक्की’ के आंकड़ों के मुताबिक करीब 45 लाख करोड़ रपए विदेशी बैंकों में जमा हैं। दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीयों के करीब 85 अरब करोड़ रपए जमा थे। एक अरब से अधिक आबादी वाले इस देश का सालाना बजट भी इससे कम है। पिछली सरकार ने जर्मनी की सरकार के कहने के बावजूद कोई कदम नहीं उठाया था। यह साफ है कि कई विदेशी सरकारें इस मुद्दे पर जानकारी साझा करने को तैयार है, वे दूसरी तरह की मदद भी करने को राजी है, लेकिन हमने ही अभी तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, बल्कि किसी न किसी तरह इस मुद्दे को टालने मे लगे हुए थे। पहले यह संभव था कि सरकार कोई एमनेस्टी स्कीम लाती और टैक्स छूट के नाम पर लोगों को काले धन को सफेद बनाने का मौका दिया जाता। सरकार के पास यह विकल्प पहले बिलकुल खुला हुआ था लेकिन जैसे-जैसे यह मसला कोर्ट में अपनी जड़ें जमाता रहा, सरकार के पास से यह विकल्प निकल गया। सुप्रीम कोर्ट में इसी अप्रैल में तत्कालीन सरकार ने उन 18 लोगों की जानकारी दी थी जिन्होंने कथित रूप से जर्मनी के लिचेंस्टीन में स्थित एलएसटी बैंक में काला धन जमा कर रखा था और जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने जांच भी शुरू कर दी है। इतना होते हुए भी इन लोगों के नाम जाहिर नहीं किए गए थे। आगे एक-एक कर नाम जाहिर किए जाने चाहिए। एसआईटी के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश एमवी शाह और उपाध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश अरिजीत पसायत को इस मुद्दे को तेजी से सुलझाने की दिशा में आगे आना चाहिए। काला धन आज महज एक धारणा नहीं है बल्कि यह तथ्यात्मक रूप से भी हमारे सामने है। अवैध तरीके से धन अर्जित करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। अब तक इन पर ज्यादा गौर नहीं किया गया है। हमारे यहां एक धारणा यह बना दी गई कि काले धन पर अंकुश लगाना अदालत का काम है, जो पूरा सच नहीं। काले धन के पीछे की मुख्य वजह भ्रष्टाचार ही है। स्विस बैंक में जो भी पैसा जमा है वह भ्रष्टाचारियों की वजह से है। ये भ्रष्टाचारी कहां से आते हैं और इन्हें कौन शह देता है, इसकी जानकारी शायद सभी को है। राजनीति इसकी जड़ है। जनता को चाहिए कि वह काले धन को लेकर अपनी जागरूकता का परिचय देते हुए फैसला ले और वोट देने का एक आधार यह भी बनाए कि इस मोर्चे पर कौन कैसा काम कर रहा है। दरअसल विदेशी बैंकों में जमा काला धन वह पैसा है जो परोक्ष रूप से आम लोगों की जेब से ही निकला है। भ्रष्टाचार और काले धन की समस्या को मिटाना है तो जनता का जागरूक होना ही सबसे प्राथमिक विकल्प है। चूंकि राजनीति जनता के दबाव में चलती है इसलिए लोगों को सचेत होना ही होगा। हालांकि भ्रष्टाचार और काला धन अब नौकरशाही और प्रशासन में भी घर कर गया है। इकॉनामिक र्वल्ड में तो इसकी पहुंच है ही। आगे काला धन एक बैंक से दूसरे बैंक में ट्रांसफर किया जा सकता है। काले धन से संबंधित जांच-पड़ताल में गुणवत्ता और मुकदमे की समय सीमा कम करना अत्यंत जरूरी है। इनकम टैक्स विभाग को भी अपनी कार्यपण्राली में आमूल सुधार करना होगा। मुझे यह स्पष्ट लग रहा है कि काला धन को वापस लाना आसान नहीं होगा, लेकिन आगे इतना जरूर होगा कि काले धन का प्रवाह विदेशी बैंकों की ओर रुकेगा। जनता ने बीजेपी पर विास करके उसे वोट दिया है। पहले लोकसभा चुनाव में, फिर विधानसभा चुनाव में। सरकार को यह समझना चाहिए कि वह जन विास को तोड़ कर काले धन के मसले को राजनीतिक दांव- पेच में ही उलझाए रखेगी तो आगे उसे नुकसान उठाना पड़ेगा। उसकी जनस्वीकार्यता घटेगी।

(लेखक सीबीआई के निदेशक रहे हैं)