Monday 23 June 2014

काला धन

काला धन लाने की चिंता, हटाने की नहीं

नवभारत टाइम्स | Jun 3, 2014

सुधांशु रंजन
केंद्र सरकार ने अपने पहले महत्वपूर्ण निर्णय में विदेशों में जमा काले धन पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया है। काले धन के आकार के बारे में कई अनुमान आते रहते हैं। एक आंकड़े के अनुसार यह राशि लगभग 79 लाख करोड़ रुपए है, हालांकि विदेशी बैंकों में देश का कितना काला धन जमा है, इसका कोई प्रामाणिक आंकड़ा किसी के पास नहीं है। अंतरराष्ट्रीय वाचडॉग ग्लोबल फाइनैंशल इंटीग्रिटी (जीएफआई) के अनुसार सिर्फ सन 2011 में 4 लाख करोड़ रुपए अवैध तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। यह 2010 के मुकाबले 24 प्रतिशत अधिक था। 2011 में भारत सरकार का बजट खर्च लगभग 13 लाख करोड़ रुपए था। यानी अवैध रूप से बाहर जाने वाली राशि औसतन सालाना बजट खर्च का लगभग एक-तिहाई है।
काला धन और गंदा धन
देश से बाहर धन भेजने का सबसे सरल तरीका आयात-निर्यात में कीमतों को बढ़ा-घटा कर पेश करना है। आयात में कीमतें ज्यादा चुकाई जाती हैं ताकि वास्तविक मूल्य से ज्यादा ऊपर की राशि बाहरी बैंकों में जमा कराई जा सके। इसी प्रकार निर्यात में कीमत कम दिखाई जाती है ताकि दामों में जो अंतर है वह राशि बाहर जमा कर दी जाए। जीएफआई के मुताबिक 2011 में विकासशील देशों से 1000 अरब अमेरिकी डॉलर विदेशी बैंकों में गए। इनमें रूस से सर्वाधिक 191 अरब डॉलर गए। इसके बाद चीन का नंबर था जहां से 151 अरब डॉलर गए। तीसरे स्थान पर भारत रहा जिसके 85 अरब डॉलर काले धन के रूप में बाहर गए।
त्रुटिपूर्ण बिलिंग के अलावा हवाला के जरिए भी काफी सारा धन बाहर जाता है। महाराष्ट्र के हवाला व्यापारी हसन अली पर आरोप है कि उसके 36,000 करोड़ रुपए बाहर जमा हैं। जांचकर्ताओं के अनुसार उसने भ्रष्ट बाबुओं एवं नेताओं के लिए एक समानांतर बैंकिंग नेटवर्क चला रखा है। उसका धंधा 1982 में 5 करोड़ रुपए से शुरू हुआ जो उसने सिंगापुर के यूबीएस बैंक में जमा किए थे। 1999 में यह रकम बढ़कर 1 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई जो उस समय की डॉलर की कीमत के अनुसार 4500 करोड़ रुपए हुए। अभी तक उसने इन पैसों में से 5 करोड़ का भी कोई साफ हिसाब नहीं दिया है। 2001 में अमेरिका में ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद अली के खाते में धन बेतहाशा बढ़ा। इसकी वजह यह बताई जाती है कि अमेरिका एवं अन्य कई देशों ने आतंकवादी संगठनों से जुड़े खातों में कारोबार बंद कर दिया था और उनके दबाव में ये खाते फ्रीज कर दिए गए थे। यही वह समय था जब अली हसन के खाते में धन तेजी से आने लगा।
अवैध धन दो प्रकार के होते हैं- काला धन और गंदा धन। काला धन वह है जिस पर कर नहीं चुकाया गया है, लेकिन गंदा धन वह है जो अपराध के जरिए प्राप्त किया जाता है। इसलिए हर गंदा धन काला धन है, लेकिन हर काला धन गंदा धन नहीं है। 1970 के दशक में विदेशी मुद्रा के भंडार में कमी आने पर कई कानून बने। 1973 में फेरा (विदेशी मुद्रा नियमन कानून) तथा 1974 में कोफेपोसा (विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्कर गतिविधियां निरोधक कानून) बनाए गए। इनमें दंड के प्रावधान उतने कड़े नहीं थे। बाद में जब फेरा को बदलकर फेमा (विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून) बना तो दंड और भी कम कर दिए गए। इनमें अधिकतर दीवानी प्रावधान के तहत आते हैं।
2002 में काले धन को सफेद करने से रोकने के लिए अधिनियम बना। इसकी अनुशंसा 1999 में ही वित्त मंत्रालय की संसदीय समिति ने की थी, किंतु कानून 2002 में बना और लागू तीन वर्ष बाद 2005 में हुआ। इसकी धारा 12(1) में कम से कम तीन वर्ष और अधिकतम सात वर्ष के सश्रम कारावास का दंड है। साथ में 5 लाख रुपए तक का जुर्माना भी हो सकता है। इसमें काले धन से अर्जित संपत्ति की कुर्की-जब्ती का भी प्रावधान है। 2013 में संशोधन कर इसे और सख्त बनाया गया है।
अदालत बनाम सरकार
इसके बावजूद काले धन के मोर्चे पर खास सफलता मिलती नहीं दिख रही। इसके आकार में लगातार हो रही वृद्धि का एक बड़ा कारण यह है कि नाम पता होने के बावजूद विदेशी बैंकों में खाता रखने वालों के खिलाफ अभी तक कोई ठोस कार्रवाई शुरू नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगातार नाराजगी व्यक्त किए जाने के बाद केंद्र सरकार ने अदालत में 26 व्यक्तियों की सूची जमा की जिनके खाते जर्मनी के लीचेंस्टाइन बैंक में हैं। जो सूची उच्चतम अदालत में दी गई है और जो 18 नाम सार्वजनिक किए गए हैं, उनमें भी संबंधित लोगों को सिर्फ कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है, उन पर मुकदमा नहीं हुआ है। काले धन के खिलाफ जो कोशिशें अदालत और सरकार के स्तर पर की जा रही हैं उनमें जोर विदेशों में छुपाए गए काले धन पर है। देश के अंदर जो बड़े पैमाने पर काला धन है उस पर किसी का खास ध्यान नहीं है। जबकि पिछले दो वर्षों में छापों से आयकर विभाग द्वारा बरामद की गई रकम ही देखें तो यह 18,700 करोड़ रुपए बैठती है।
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अब लाएं ब्लैक मनी

नवभारत टाइम्स | May 24, 2014,

काले धन के मामले पर सुप्रीम कोर्ट काफी गंभीर है। अब इस मामले में सरकार की परीक्षा होगी। चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा रहा। इस संबंध में तरह-तरह की बातें कही गईं, जिनमें कुछ हवाई भी थीं। बीजेपी ने आश्वासन दे डाला कि उसकी सरकार बनेगी तो विदेश में जमा काला धन लाया जाएगा और उसे देश में बांट दिया जाएगा। बहरहाल, आशा की जानी चाहिए कि अदालत के आदेश पर गठित होने वाली एसआईटी के सक्रिय होने के बाद इस संबंध में कुछ ठोस चीजें सामने आएंगी और उलझनें दूर होंगी। गौरतलब है कि 1 मई को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया था कि वह तीन सप्ताह के भीतर एसआईटी की नियुक्ति के लिए अधिसूचना जारी करे। गुरुवार को यह समय सीमा समाप्त होने वाली थी लेकिन सरकार ने इसके लिए एक सप्ताह की मोहलत और मांगी, जिसे अदालत ने मान लिया। कोर्ट ने देश-विदेश में काले धन से जुड़े सभी मामलों की जांच में सहयोग और दिशा-निर्देश देने के लिए अपने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों एमबी शाह को एसआईटी का अध्यक्ष और अरिजित पसायत को उपाध्यक्ष नियुक्त किया था। 4 जुलाई 2011 के आदेश के तहत एसआईटी के उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए जस्टिस शाह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बीपी जीवन रेड्डी का स्थान लेंगे, जिन्होंने निजी कारणों से अध्यक्ष पद पर बने रहने में असमर्थता जाहिर की थी। पिछले महीने सरकार ने कोर्ट को उन 18 व्यक्तियों की जानकारी दी थी, जिन्होंने कथित रूप से जर्मनी के लिशटेंसटाइन में स्थित एलएसटी बैंक में कालाधन जमा कर रखा था और जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने मुकदमा शुरू किया है। यह पूरा प्रकरण काफी उलझा हुआ है। किसी को ठीक-ठीक नहीं मालूम कि विदेशी बैंकों में या हमारे देश में कुल कितना काला धन जमा है? एक अनुमान के अनुसार यह राशि लगभग 79 लाख करोड़ रुपया है।
अंतरराष्ट्रीय संस्था 'ग्लोबल फाइनैंशल इंटेग्रिटी' के अनुसार वर्ष 2011 में 4 लाख करोड़ रुपये अवैध तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। लेकिन कई विशेषज्ञ मानते हैं कि विदेश जाने वाला काला धन घूम-फिरकर हमारे देश में ही आ जाता है और कई लेवल पर उसका निवेश होता रहता है। इस तबके की राय है कि विदेशी बैंकों में जमा काले धन से कहीं ज्यादा फिक्र अपने मुल्क में दिन-रात पैदा हो रही ब्लैक मनी की करनी चाहिए। विदेशी बैंकों से ज्यादा जानकारी लेना और कार्रवाई करना आसान नहीं है। दूसरी ओर हमारे देश में कई कारोबारों और चुनाव तक में धड़ल्ले से ब्लैक मनी का इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन इसे एक्सपोज करना आसान नहीं है। एसआईटी वहां सफल हो सकती है जहां कानून के फंदे कारगर हों, लेकिन बड़े पैमाने पर ब्लैक मनी के चलन को रोकने के लिए नीतिगत उपाय करने होंगे।
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वापस लाएं विदेशों में जमा काला धन    

 नवभारत टाइम्स  | Feb 11, 2014  भारत डोगरा

विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा हमारे देश में कभी बहुत जोर-शोर से उठाया जाता है, कभी सालों-साल ठप्प पड़ा रहता है। इतना ही नहीं, जब मुद्दा जोर पकड़ता है तब भी इसके पीछे प्रायः कोई संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य होता है, ताकि किसी को निशाना बनाया जा सके। कुल मिलाकर संकेत यह जाता है, जैसे यह महज भारत के कुछ राजनीतिक दलों के बीच का मुद्दा हो। हकीकत यह है कि पूरी दुनिया में टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार और अपराधों से प्राप्त धन को गुप्त रूप से संजोने के लिए और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में कई तरह की हेरा-फेरी संभव करने के लिए 'टैक्स हेवनों' का एक जाल बिछा हुआ है, जिसमें दुनिया के कुछ सबसे धनी व्यक्तियों के स्वार्थ जुड़े हुए हैं। इनमें वे अरबपति व्यक्ति व वित्तीय संस्थान भी हैं, जो ऊपरी तौर पर विधि सम्मत कार्य कर रहे हैं।

शक्तिशाली स्वार्थों का खेल


ऐसे निहित स्वार्थों के कारण ही इन 'टैक्स हेवनों' के विरुद्ध अब तक कोई असरदार कार्रवाई नहीं हुई। लेकिन हाल के वित्तीय संकट के बाद यह बेहतर ढंग से समझा गया कि जब तक एक समानांतर, गुप्त व काफी हद तक अवैध अर्थव्यवस्था दुनिया के पैमाने पर चलती रहेगी, तब तक विश्व वित्तीय व्यवस्था में स्थिरता नहीं आ सकेगी। अतः अब विश्व स्तर पर 'टैक्स हेवनों' और गुप्त खातों के विरुद्ध कार्रवाई का बेहतर माहौल बन रहा है। जो विकसित देश इनके रक्षक माने जाते थे, वहां भी इनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही शुरू हुई है।  शक्तिशाली स्वार्थ इन्हें कितना आगे बढ़ने देंगे, यह सवाल अभी बना हुआ है, लेकिन कुल मिलाकर गुप्त खातों व टैक्स चोरी के विरुद्ध असरदार कदम उठाने का अब पहले से बेहतर माहौल है। भारत सरकार को चाहिए कि इस माहौल का लाभ उठाते हुए वह विदेश में जमा काले धन को वापस लाने के प्रयास तेज करे। अंतत: विश्व स्तर पर उचित कानूनी व्यवस्था होने से ही विदेश में जमा काला धन देश में लाना संभव होगा। केवल एक तरफा कार्रवाई बहुत आगे नहीं जा पाएगी। ग्लोबल फ़ाइनैंशल इंटीग्रिटी द्वारा प्रस्तुत हाल के अनुभवों के अनुसार निर्धन देशों से बाहर जाने वाले अवैध वित्तीय ट्रांसफर पिछले दशक में तेजी से बढे़ हैं और इनका मूल्य प्रतिवर्ष 1000 अरब डॉलर या इससे भी अधिक हो सकता है। माना जा रहा है कि इन देशों को जितना भी विदेशी निवेश और विदेशी सहायता मिलती है, उससे कहीं अधिक धन अवैध तरीकों से बाहर जाता है। दुनिया के सबसे धनी देशों के संगठन 'ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डिवेलपमेंट' (ओईसीडी) ने हाल की एक रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि अवैध धन से संबंधित सावधानियां बरतने में इसके 34 में से 22 सदस्य कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। जिन भ्रष्टाचारियों की लूट प्रमाणित हो चुकी है, उनके अपने यहां जमा धन को रिकवर कर उसे लौटाने का काम इन देशों में बहुत धीमी गति से हुआ है। वर्ष 2010-12 के दौरान ऐसे महज 15 करोड़ डॉलर लौटाए गए। वैसे इस रिपोर्ट के बारे में भी कहा जा रहा है कि शक्तिशाली निहित स्वार्थों को चोट पहुंचाने वाले कई तथ्य इसमें से हटा दिए गए हैं। जैसे, बहुराष्ट्रीय कंपनियां कुछ कंपनियों को अपनी सहायक कंपनी बताकर उनके आयात-निर्यात की कीमत इस तरह दिखाती हैं कि बहुत कम मुनाफा टैक्स के दायरे में आ पाता है। ब्रिटेन जैसे बड़े विकसित देश अब अधिक दोष उन छोटे स्वायत्त क्षेत्रों को दे रहे हैं जो अब तक इन 'अभिभावक' देशों के ही नियंत्रण में काम करते रहे हैं। अब इन सभी पर दबाव पड़ रहा है कि वे अवैध वित्तीय गतिविधियों में कमी लाएं। गुप्त विदेशी खातों की खोज व जांच के लिए विश्व स्तर पर एक समझौते की चर्चा हो रही है जिसे 'मल्टीलैटरल कंवेंशन ऑन म्यूचुअल एडमिनिस्ट्रेटिव अस्सिटेंस इन टैक्स मैटर्स' (टैक्स मुद्दों पर आपसी प्रशासनिक सहायता के लिए बहुपक्षीय समझौता) का नाम दिया गया है। इसे 55 से 60 देश अपना चुके हैं या अपनाने की स्वीकृति दे चुके हैं। काले धन के खिलाफ सक्रिय एक संगठन टैक्स जस्टिस नेटवर्क के अनुमान के मुताबिक दुनिया के धनी व्यक्तियों के इस समय कुल लगभग 15 ट्रिलियन डॉलर या 15 लाख करोड़ डॉलर टैक्स हेवंस में जमा हैं। सन 1980 से शुरू लिबरलाइजेशन के दौर में यहां जमा धन तीन गुना से अधिक बढ़ गया है। इस सुविधा का लाभ उठाकर विश्व के अति धनी व्यक्ति व संस्थान हर साल 250 अरब डॉलर का टैक्स बचाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व सहस्राब्दी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी धनराशि से कहीं अधिक है। वरना फिर लौटेगा संकट विश्व स्तर पर बहुत वित्तीय संकट खड़ा करने में इन 'टैक्स हेवनों' की बड़ी भूमिका रही है और इन्हें बंद नहीं किया गया, या कड़े नियंत्रण में नहीं लाया गया तो ऐसे संकटों की वापसी की संभावना बहुत बढ़ जाएगी, क्योंकि यह विश्व अर्थव्यवस्था में अपराध, मुनाफाखोरी और जालसाजी को बढ़ावा देने वाली एक समांतर व्यवस्था है। अतः 'टैक्स हेवनों' के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई में अब और देर नहीं होनी चाहिए तथा ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने में भारत को अहम भूमिका निभानी चाहिए।

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ब्लैक मनी: भारत दुनिया के टॉप-5 देशों में    

  |Dec 13, 2013   पीटीआई, वॉशिंगटन

ब्लैक मनी देश से बाहर भेजने के मामले में भारत दुनिया के टॉप 5 देशों में है। जी हां, एक नई रिपोर्ट से यह बात सामने आई है। इसमें कहा गया है कि 2002 से 2011 के बीच भारत ब्लैक मनी का दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा एक्सपोर्टर रहा। इस दौरान 343.04 अरब डॉलर के बराबर ब्लैक मनी देश से बाहर भेजा गया। यही नहीं 2011 में तो भारत ने टॉप 3 में जगह बना ली। इस साल 84.93 अरब डॉलर ब्लैकमनी देश से बाहर गया और भारत ब्लैक मनी का तीसरा सबसे बड़ा एक्सपोर्टर बन गया।  क्राइम, करप्शन, टैक्स चोरी: विकासशील देशों से 2002-2011 के बीच बाहर गए ब्लैक मनी पर तैयार इस रिपोर्ट को वॉशिंगटन बेस्ड रिसर्च ऐंड एडवोकेसी ऑर्गनाइजेशन ग्लोबल फाइनैंशल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने तैयार किया है। 2011 में विकसित देशों से कुल 946.7 अरब डॉलर की रकम क्राइम, करप्शन और टैक्स चोरी जैसी वजहों के कारण ब्लैक मनी के रूप में देश से बाहर गई। यह रकम 2010 की तुलना में 13.7 पर्सेंट ज्यादा थी। 2010 में 832.4 अरब डॉलर ब्लैक मनी विकासशील देशों से निकाला गया था।  कंगाली में आटा गीला: जीएफआई ने इस बारे में डिटेल रिपोर्ट बुधवार को जारी की है। संस्थान के प्रेजिडेंट रेमंड बेकर के मुताबिक, दुनिया भर में जारी वित्तीय संकट के बीच एक ओर जहां दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं किसी तरह खुद को संभालने में जुटी थीं, वहीं अंडरवर्ल्ड हर साल ज्यादा से ज्यादा पैसा विकासशील देशों से ब्लैकमनी के रूप में विदेश भेज रहा था। उस समय गरीब और अमीर दोनों ही देश इकॉनमिक ग्रोथ के लिए जूझ रहे थे। मगर यह भी सच है कि दुनिया के सबसे गरीब देशों से कई ट्रिलियन डॉलर अनाम शेल कंपनियों, टैक्स हेवन सीक्रेसी और ट्रेड के बहाने होने वाली मनी लॉन्ड्रिंग के जरिए विदेश पहुंचाए जा रहे थे।  .9 ट्रिलियन डॉलर गंवाए : विदेश भेजे गए ब्लैक मनी में 2002 और 2011 के बीच बड़ा अंतर आ गया था। 2002 में जहां विकासशील देशों से 270.3 अरब डॉलर भेजा गया वहीं 2011 में यह आंकड़ा 832.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। यानी विकासशील देशों ने इस दौरान 5.9 ट्रिलियन डॉलर ब्लैक मनी के रूप में गंवा दिए।
एशियाई मुल्क आगे : सबसे बड़ी बात कि ब्लैक मनी के दुनिया के टॉप 15 एक्सपोर्टरों में से 6 एशियाई देश - चीन, मलयेशिया, भारत, इंडोनेशिया, थाइलैंड और फिलिपींस हैं। वहीं अफ्रीका से दो देश नाइजीरिया और साउथ अफ्रीका हैं। यूरोप से चार देश - रूस, बेलारूस, पोलैंड और सर्बिया हैं। पश्चिमी गोलार्द्ध से दो देश - मेक्सिको और ब्राजील हैं। वहीं मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीकी इलाके से सिर्फ एक देश इराक का नाम इसमें शामिल है।
चीन की बढ़त : पिछले 10 साल में चीन ब्लैक मनी एक्सपोर्ट करने के मामले में दुनिया में टॉप पोजिशन पर आ चुका है। इस दौरान चीन से 1.08 ट्रिलियन डॉलर ब्लैक मनी विदेश भेजा गया। इसके बाद दूसरे नंबर पर रूस (880.96 अरब डॉलर), मेक्सिको (461.86 अरब डॉलर), मलयेशिया (370.38 अरब डॉलर) रहे।
जीडीपी से ज्यादा ब्लैक मनी की ग्रोथ : जीएफआई के चीफ इकॉनमिस्ट देव कार के मुताबिक, ब्लैक मनी का इतनी तेजी से बढ़ना बड़ी चिंता की बात है। पिछले एक दशक में विकासशील देशों से विदेश भेजे गए ब्लैक मनी में हर साल 10.2 पर्सेंट की ग्रोथ देखी गई है। जबकि इन देशों की जीडीपी ग्रोथ बहुत कम दर से बढ़ी है। इससे यह बात भी पता चलती है कि इन देशों की सरकारों के लिए ब्लैक मनी को रोकना अब कितना जरूरी हो गया है।
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नाम बता देने से क्या आ जाएगा काला धन?

25, OCT, 2014, SATURDAY 11:00:28 PM

पुष्परंजन
काले धन के साथ कई सारी त्रासद कथाएं जुड़ चुकी हैं। जर्मनी और फ्रांस दो ऐसे देश हैं, जिनके पास इसका जवाब नहीं कि उन्हें इसका लाइसेंस कैसे मिल गया कि काले धन से संबंधित चोरी की सीडी खऱीदें, और फि र उसे दुनिया की सरकारों को बेचें। अपने यहां अब तक किसी दल ने यह सवाल नहीं उठाया है कि क्या भारत सरकार चोरी का माल खऱीदने के लिए अधिकृत है? आधा सच बोलने वाले वित्त मंत्री अरूण जेटली, संप्रग के दौर के मंत्री के काले खाते की बात कर रहे हैं, लेकिन एनडीए के शासन में विदेश में कितना काला धन गया, यह सवाल वेताल की तरह डाल पर लटका हुआ है। 'ब्लैक मनी बमÓ में आधी-अधूरी सूचनाओं की रस्सी काफी लंबी लपेटी जा चुकी है। 
बस्तर जि़ले के जगदलपुर का क्षेत्रफ ल 60 वर्गमील है। ठीक इसी के बराबर ऑस्ट्रिया और स्विट्जऱलैंड के बीच बसा एक देश है, लिश्टेन्स्टाइन। लिश्टेन्सटाइन को लेकर अपने यहां भ्रांति है कि यह देश स्विट्जऱलैंड, या जर्मनी का हिस्सा है। वैटिकन सिटी और मोनाको के बाद मुझे तीसरा ऐसा मुल्क मिला था, जहां एक दिन में पूरे देश की परिक्रमा की जा सकती है। दुनिया में ऐसे सत्रह देश हैं, जिनके क्षेत्रफल दो सौ वर्गमील से कम हैं। क्षेत्रफल में छोटे देशों की एक जैसी विशेषता यह है कि उनके यहां बैंकों का ज़बरदस्त कारोबार है, और काले धन खपाने के कारण ये 'टैक्स हीबेनÓ के नाम से कुख्यात हैं। लिश्टेन्स्टाइन का राज परिवार दुनिया के छठे सबसे अमीर शाही घराने में शुमार होता है। यहां की जनता का जीवन स्तर शानदार है। इसी लिश्टेन्स्टाइन के शासनाध्यक्ष प्रिंस एलोइस ने जर्मन सरकार पर चोरी का आरोप लगाया था। 
लिश्टेन्स्टाइन के एलजीटी बैंक से एक सीडी की चोरी 2002 में हुई। बैंक की शिकायत पर हेनरिश कीबर नामक कर्मी, 2003 में पकड़ा गया। कीबर जमानत पर छूटा, और जर्मनी के बोखम नामक शहर में भूमिगत हो गया। 2006 में जर्मन खुफि या 'बीएनडीÓ ने उस सीडी के बदले कीबर को 42 लाख यूरो का पेमेंट किया था। इस सीडी में कोई 1400 लोगों के 'अकाउंट डिटेल्सÓ थे, जिनमें जर्मनों की संख्या 600 के आसपास थी। इस सीडी को भारत, ब्रिटेन, अमेरिका और बाक़ी देशों को बेचने के लिए जर्मनी 2007 में सक्रिय हुआ। 24 फ रवरी 2008 को ब्रिटेन ने 100 लोगों के बैंक डाटा पाने के लिए एक लाख पौंड जर्मनी को दिये। इस सीडी के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ ्रांस समेत यूरोप के दसियों देशों ने जर्मनी को करोड़ों यूरो दिये। 
लिश्टेन्स्टाइन के प्रिंस एलोइस 14 से 20 नवंबर 2010 को भारत आये, उन्होंने यहां कृषि बीज व्यापार को विस्तार देने के अलावा सरकार से बैंक से संबंधित सूचनाओं को साझा करने पर सहमति दी। 28 मार्च 2013 को लिश्टेन्स्टाइन और भारत के बीच 'कराधान सूचना आदान-प्रदान समझौताÓ (टीआईइए) स्विट्जऱलैंड की राजधानी बर्न में हुआ। प्रिंस एलोइस एक बार फिर अक्टूबर 2013 में भारत आये। मुख्य विषय काले धन से संबंधित सूचनाएं थीं, जिन्हें सार्वजनिक न करना मनमोहन सरकार की मज़बूरी थी। 
डाटा चोरी की खऱीद-बिक्री फ ्रांस ने भी की। 2007 में 'एचएसबीसी' बैंक की जिनेवा शाखा में हर्वे फेल्सियानी नामक एक सिस्टम इंजीनियर के बारे में पता चला वह ग़ायब है। फेल्सियानी पांच सीडी के साथ स्पेन में भूमिगत था, और वहीं से यूरोप, इजऱाइल की सरकारों से बैंक डाटा बेचने के लिए संपर्क साध रहा था। फेल्सियानी को मोसाद के जासूसों ने अगवा करने की कोशिश की थी। जेम्स बांड की फि ल्मों की तरह फेल्सियानी का भागना-छिपना जारी रहा। अंतत: जनवरी 2009 में हर्वे फेल्सियानी फ्रांसीसी खुफिया 'डीसीआरआईÓ के हत्थे चढ़ा। फ्रांस ने तीन चरणों की सुरक्षा देते हुए, उसे ऐसे ठिकाने पर भूमिगत कर दिया, जहां उस तक पहुंचना सबके लिए आसान नहीं था। इसके बाद शुरू हुआ सूचनाओं का सौदा। हर्वे फेल्सियानी की उन पांच सीडी में लगभग एक लाख तीस हज़ार खातेदारों का ब्योरा था, जिसे पाने के लिए दुनिया भर की सरकारें, उनकी खुफि या एजेंसियां सक्रिय हो गईं थीं। भारत को काले धन के बारे में दो अलग-अलग सूचनाओं के लिए जर्मनी और फ्र ांस की सरकारों को कितने करोड़ यूरो देने पड़े, इसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। संभव है बैंक सीडी की दलाली में कई लोगों ने अपने हाथ साफ  किए हों। 
ख़ैर, भारत और लिश्टेन्सटाइन के टैक्स इंफॉर्मेशन एक्सचेंज एग्रीमेंट(टीआईइए) में स्पष्ट लिखा गया है कि जांच और नाम की गोपनीयता बनी रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के हवाले से जिन 18 खातेदारों के नामों का खुलासा किया गया, उन सभी के अकाउंट्स लिश्टेंस्टाइन के एलजीटी बैंक में हैं, जिनमें से एक की मौत हो चुकी है। इन 18 खातेदारों के नामों को देखकर लगता है कि उनमें से अधिकांश लोगों के संबंध गुजरात से हैं, और ट्रस्ट चलाते हैं। सीबीआई, अपने बयान पर कायम रही कि स्विट्जऱलैंड के बैंकों में भारतीयों के 500 अरब डॉलर (लगभग 24.5 लाख करोड़ रुपये) काला धन जमा है। लेकिन स्विस नेशनल बैंक के अधिकारी बताते हैं कि भारतीयों के मात्र 14 हज़ार करोड रुपये ़(2.03 अरब स्विस फ ्रांक) स्विस बैंकों में जमा हैं। इस पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं नजऱ आता। क्या साढ़े चौबीस लाख करोड,़ और चौदह हज़ार करोड़ रुपये के बीच कोई मेल है? तो क्या सीबीआई, आयकर और रेवेन्यू इंटेलीजेंस के अधिकारी आल्प्स की वादियों में अल्पाइन के पत्ते गिनने जाते थे? यूरोप वाले इस पर हंसते हैं कि काले धन को लेकर भारतीय मीडिया में इतना भौकाल पैदा किया गया कि हर ओर भ्रम का वातावरण है। संपूर्ण सच नहीं बोलने वाले वित्त मंत्री अरूण जेटली पर कैसे भरोसा करें कि वह काले धन पर राजनीति नहीं कर रहे हैं? पूरा सच यह है कि एनडीए के राज में काला धन लिश्टेन्सटाइन और स्विट्जऱलैंड के बैंकों में ही नहीं, मारिशस से लेकर मोनाको तक, दुनिया के तमाम 'टैक्स हेवनÓ में गया है। तय मानिये कि काले धन के सभी 800 खातेदारों के नाम उछलते ही देश की राजनीति में एक बड़ा तूफ ान खड़ा होगा। राजनीतिक दल एक-दूसरे के कपड़े फाड़ेंगे, और उन्हें चंदा देने वाले अदृश्य हाथ धमकाएंगे। प्रश्न यह है कि यदि किसी भारतीय ने अपने पूरे ब्योरे के साथ स्विस बैंकों में खाता खोला हुआ है, और भारत सरकार को कर अदा नहीं किया है, तो क्या उस धन को जब्त कर भारत लाया जा सकता है? 
इस समय दुनिया भर में 70 से अधिक देश हैं, जो काले धन जमा करते हैं, जिन्हें 'टैक्स हेवनÓ कहा जाता है। इन्हें स्विट्जऱलैंड के उस अध्यादेश से प्रेरणा मिली थी, जिसके आधार पर ब्लैक मनी जमा करने वाले 20 प्रतिशत तक कर देकर, अपना काला धन सफेद कर सकते थे। स्विट्जऱलैंड ने प्रस्ताव भेजा था कि जर्मनी 50 अरब यूरो, और ब्रिटेन सात अरब पौंड लेकर काले धन को सफेद करने की अनुमति अपने नागरिकों को दे दे। स्विस बैंक 'यूबीएसÓ ने 52 हज़ार अमेरिकियों के काले धन को सफेद करने के लिए 78 अरब डॉलर देना स्वीकार कर लिया है। काले धन को सफेद करने की इस कार्रवाई को 'रूबिक डीलÓ कहा गया है। मोदी सरकार पर भारतीय उद्योग जगत का दबाव है कि काले धन की वापसी से बेहतर है कि स्विस बैंकों के भारतीय खाताधारकों पर जुर्माना लगाया जाए। जब अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी की ताकतवर सरकारें 'रूबिक डीलÓ के लिए राजी हैं, तो भारत के आगे क्या विकल्प हो सकता है?
 भारत सरकार काले धन वालों को पकडऩे के लिए डबल टैक्सेशन एव्याएड एग्रीमेंट (डीटीएए) को भी एक कारगर हथियार मानती है। 88 देशों से भारत सरकार ने 'डीटीएएÓ समझौते किये हैं, जिनमें से एक स्विट्जऱलैंड भी है। 'डीटीएएÓ समझौते के तहत यदि किसी स्विस नागरिक का शेयर भारत की कंपनियों को ट्रांसफर होता है, तो उससे होने वाले पूंजी लाभ (कैपिटल गेन) पर भारत सरकार कर लगा सकती है। यही कराधान व्यवस्था स्विट्जऱलैंड में भारतीय निवेशकों के साथ लागू होती है। ऐसे में क्या स्विट्जऱलैंड इसकी अनुमति देगा कि भारतीय खाताधारकों के पैसे भारत सरकार सरकार वापिस ले ले? यदि ऐसा हुआ तो स्विस बैंकिंग व्यवस्था बर्बाद हो जाएगी, और पूरी दुनिया के खातेदारों का उस पर से भरोसा उठ जाएगा। 'डीटीएएÓ में यह भी संकल्प किया गया है कि खाताधारकों के नाम सार्वजनिक नहीं किये जाएंगे। इसके बरक्स वित्तमंत्री अरूण जेटली यह बयान देते हैं कि अदालत में नाम जाते ही यह सार्वजनिक हो जाएगा। क्या यह 'डीटीएएÓ समझौते के विरूद्ध नहीं है? राजनीति की बदनाम गली में आठ सौ काले धनपतियों के नाम अवश्य गूंजेंगे, पर देश में काला धन आ जाएगा, ऐसा शायद ही संभव है!


भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘दुनिया भर में बढ़ रहा जनाक्रोश  
2014-01-29
यह शताब्दी विश्व के इतिहास में ‘उपनिवेशवाद’ के चंगुल से मुक्ति की शताब्दी के रूप में जानी जाएगी। फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों की गुलामी के शिकार दर्जनों देशों को इसी शताब्दी में मुक्ति मिली। इस शताब्दी में मात्र इंगलैंड की गुलामी से जो देश मुक्त हुए उनमें पाकिस्तान, भारत, चीन, श्रीलंका, सूडान, युगांडा, संयुक्त अरब अमीरात व मारीशस आदि शामिल हैं। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद इन देशों को ‘स्वतंत्रता’ तो मिली लेकिन सुशासन नहीं मिला। इसी कारण अनेक देशों में वहां की जागरूक जनता ने कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध आंदोलन छेड़े हुए हैं। यहां तक कि यू.पी.ए.-2 के शासनकाल में हुए अरबों रुपए के घोटालों की ओर से आंखें मूंदे रखने वाली कांग्रेस के नेता राहुल गांधी यह कहने को विवश हुए कि, ‘‘कांग्रेसियों का भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’’ पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्रियों राजा परवेज अशरफ तथा गिलानी के अलावा पूर्व राष्टपति जरदारी पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकद्दमे चल रहे हैं तथा चीन में भ्रष्टाचार के आरोपी व पीपुल्स पार्टी स्टैंडिग कमेटी के पूर्व अध्यक्ष जिआंन हुआ को अदालत ने मौत की सजा सुनाई है। उस पर रिश्वत में लाखों डॉलर नकद, तीन सोने की ईंटें व काफी सामान लेने का आरोप है। गत वर्ष जून में ब्राजील में परिवहन किरायों में वृद्धि, अत्यधिक टैक्सों और विश्व कप के आयोजन में भारी-भरकम घपलों को लेकर आंदोलन भड़क उठे और 15 नवम्बर को उस देश की सर्वोच्च संघीय अदालत ने 25 लोगों के विरुद्ध आरोप तय करके सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग, कैश फार वोट का षड्यंत्र रचने व अन्य आरोपों में गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। इनमें राष्टपति लुई द सिल्वा के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ व उसके 11 साथी भी शामिल थे। यह ब्राजील के इतिहास में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग का अब तक का सबसे बड़ा मामला था। यूनान में भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे बचत अभियान में हेराफेरी के विरुद्ध जन आंदोलन जारी है और अनेक सरकारी अधिकारियों तथा व्यापारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। अनेक धन कुबेरों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिनमें एक बैंक का मुखिया भी शामिल है। आक्रोश की यह चिंगारी खाड़ी के देश ओमान में भी भड़क उठी है और वहां 20 सरकारी अधिकारियों व तेल उद्योग से संबंधित व्यापारियों के विरुद्ध रिश्वत लेने या देने के आरोप में मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। कभी गुलाम न रहने वाले देशों में भी जागरूकता की यह लहर चल पड़ी है। गत वर्ष तुर्की की राजधानी अंकारा में देश के 3 मंत्रियों को विभिन्न परियोजनाओं में भारी अनियमितताओं के चलते पद से त्यागपत्र देना पड़ा। प्रधानमंत्री रेसिप तैयप एरदोगान की सरकार के विरुद्ध 20,000 प्रदर्शनकारियों ने 17 जनवरी को भ्रष्टाचार को लेकर देश व्यापी प्रदर्शन किए। वे नारे लगा रहे थे, ‘‘इस गंदगी को क्रांति द्वारा ही दूर किया जा सकेगा। ये सब चोर हैं।’’ थाईलैंड में पूर्व प्रधानमंत्री थकसिन शिनावात्रा और उनके व्यापारिक साम्राज्य के भारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी जबरदस्त आंदोलन के बीच 2 फरवरी को चुनाव होने जा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि इसशताब्दी की शुरूआत से लेकर अभी तक शिनवात्रा और उनकी पार्टी के लोगों द्वारा अपनी सफलता यकीनी बनाने के लिए  भ्रष्टाचार का ही सहारा लिया गया  है।  शिनावात्रा की बहन यिगलक 2012 से इस देश की प्रधानमंत्री है और इस बार भी उसी के जीतने की संभावना है लेकिन प्रदर्शनकारियों ने शिनवात्रा के विरुद्ध आक्रोश को ‘जन आंदोलन’ में बदल दिया है और सेना तथा लोकतंत्र वादी संस्थाओं से अपने आंदोलन में सहयोग करने का आह्वान किया है।  उक्त देशों की जागरूक जनता द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध थामी गई इस मशाल की लपटें अभी और ऊंची उठेंगी और यह तय है कि ये लपटें विश्व को कोढ़ की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार को जला कर राख करने में किसी सीमा तक अवश्य सफल होंगी।

जड़ पर हमला हो  
 Mon, 06 Jan 2014

घूस के जरिए अकूत धन कमाने वाले लोग पकड़ में आ रहे हैं। भ्रष्ट अफसरों के घर गाहे-बगाहे छापे पड़ते रहते हैं। इस दौरान इतना अवैध धन मिलता है कि आम लोग हैरत में पड़ जाते हैं। घूस लेने वालों के बारे में यह प्रचलित अवधारणा है कि पकड़ में आने पर ही उनके पाप का पता चल पाता है। इसके पहले तक सब साधु बने रहते हैं। अब जबकि सरकार घूसखोरी रोकने के प्रति सख्त है, जितने कम लोग पकड़ में आ रहे हैं, उससे यह कल्पना करना बेमानी ही होगी कि राज्य से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। सवाल उठता है कि कोई अधिकारी किसी खास जगह पर जाने को बेताब क्यों रहता है। लोग सरकारी सेवा में आते हैं। काम के एवज में उन्हें वेतन मिलता है। दूसरी सुविधाएं मिलती हैं। वे करार पर दस्तखत करके आते हैं कि जरूरत के हिसाब से राज्य के किसी भी हिस्से में उनका तबादला किया जा सकता है। लेकिन, व्यवहार में ऐसा होता है क्या? ठीक इसके उलट होता है। मालदार विभाग में तैनात कर्मी नौकरी शुरू करने के अगले ही दिन उन जगहों पर तैनाती के लिए जान लगा देता है, जहां रिश्वत की गुंजाइश है। मसलन, कोई डीटीओ जीटी रोड वाले इलाके में पोस्टिंग के लिए क्यों परेशान रहता है। खनन विभाग के अफसरों को मृत पहाड़ और बालू निकालने वाला इलाका क्यों चाहिए। राजधानी का खास थाना क्यों किसी थानेदार को प्रिय है। उत्पाद महकमा के अफसरों को राजधानी ही क्यों अधिक पसंद है और इंजीनियर साहब क्यों हमेशा कार्य विभाग को ही अपना ध्येय मानते हैं। यह भी कि ट्रांसफर-पोस्टिंग के मौसम में किस खास आदमी के यहां पैरवीकारों की अधिक भीड़ जुटती है। अप्रिय सच यह है कि मनचाही पोस्टिंग की इच्छा में जनसेवा का लेशमात्र भाव नहीं रहता है। क्या भाव रहता है, इसे वे लोग अच्छी तरह जानते हैं, जिनके हाथों में ट्रांसफर-पोस्टिंग की कमान है।  अगर ट्रांसफर-पोस्टिंग को पारदर्शी बना दिया जाए तो घूसखोरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। तब किसी अफसर को यह फिक्र नहीं रहेगी कि लगाकर आए हैं तो लागत से अधिक हासिल करना हमारा अधिकार है। लेकिन, इस माध्यम को पारदर्शी बनाना एक आदर्श कल्पना ही है। इसे सरजमीन पर उतारना मुश्किल है। इसलिए कि पूरा राजनीतिक तंत्र ट्रांसफर-पोस्टिंग और ठेके की कमाई से ही नियंत्रित हो रहा है। यही तंत्र कुल मिलाकर कार्यपालिका पर अपना मालिकाना हक भी रखता है। आज मुख्यधारा में कौन सी राजनीतिक पार्टी है जो आम जनता के बीच जाकर रुपये-दो रुपये चंदा बटोरती है। जबकि हरेक राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लाख-करोड़ ऐसे खर्च हो जाते हैं मानो उनके लिए इतनी बड़ी रकम धेला-पाई के बराबर है। यह अच्छी बात है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी पकड़ में आ रहे हैं। मगर, तंत्र में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह काफी नहीं है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार है, वह भ्रष्टाचार को सचमुच रोकना चाहता है तो उसे फुनगी के बदले जड़ पर प्रहार करना होगा। बरना छापे, बरामदगी, गिरफ्तारी और संपति जब्ती के कर्मकांड होते रहेंगे। पब्लिक अपने काम के लिए घूस भी देगी, सरकार और उसके मुलाजिमों के करतब का मजा भी लेती रहेगी।


भ्रष्टाचार की अर्थव्यवस्था  
 Tue, 08 Jan 2013

देशवासी हर नेता को भ्रष्ट मानते हैं। ऐसे में उदास होने की जरूरत नहीं है। हमें भ्रष्ट नेताओं में सही नीतियां बनाने वाले को समर्थन देना चाहिए। यदि घूस लेने वाले और गलत नीतियां बनाने वाले के बीच चयन करना हो तो मैं घूस लेने वाले को पसंद करूंगा। कारण यह कि घूस में लिया गया पैसा अर्थव्यवस्था में वापस प्रचलन में आ जाता है, लेकिन गलत नीतियों का प्रभाव दूरगामी और गहरा होता है, जैसे सरकार विदेशी ताकतों के साथ गैर-बराबर संधि कर ले, गरीब के रोजगार छीनकर अमीर को दे दे। ऐसे में देश की आत्मा मरती है और देश अंदर से कमजोर हो जाता है।  आम तौर पर माना जाता है कि भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मसलन भ्रष्टाचार के चलते सड़क कमजोर बनाई जाती है, जिससे वह जल्दी टूट जाती है और ढुलाई का खर्च अधिक पड़ता है। इस फार्मूले के अनुसार भारत और चीन की विकास दर कम होनी चाहिए थी, क्योंकि ये देश ज्यादा भ्रष्ट हैं, परंतु वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है। भारत और चीन की विकास दर अधिक है, जबकि ईमानदार देशों की विकास दर या तो ठहर गई है या फिर बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है। जाहिर है कि भारत एवं चीन में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा है। प्रश्न है कि भारत में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव क्यों नहीं दिख रहा है?  भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि इससे प्राप्त रकम का उपयोग किस प्रकार किया जाता है। मान लीजिए एक करोड़ रुपये की सड़क बनाने के ठेके में से 50 लाख रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। सड़क घटिया क्वालिटी की बनी। इस भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ा। अब प्रश्न उठता है कि घूस की 50 लाख की रकम का उपयोग किस प्रकार हुआ। इस रकम को ऐशोआराम में उड़ा दिया गया अथवा शेयर बाजार में लगा दिया गया? यदि रकम को शेयर बाजार में लगाया गया तो भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव कुछ कम हो जाता है और वह उत्पादक होकर आर्थिक विकास में सहायक बन जाता है। मसलन किसी सरकारी विभाग के इंजीनियर ने 50 लाख रुपये के शेयर अथवा बांड खरीद लिए। कंपनी ने इस रकम से नहर बनाई। अर्थव्यवस्था पर अंतिम परिणाम यह पड़ा कि सड़क घटिया बनी, किंतु इस पैसे से नहर बनी। सड़क के ठेके में हुए भ्रष्टाचार का दुष्परिणाम नहर बनने से कुछ कम हो जाता है।  दक्षिणी अमेरिका के देशों एवं भारत में यह अंतर साफ दिखता है। दोनों देशों में घरेलू भ्रष्टाचार व्याप्त है। दक्षिण अमेरिका के नेताओं ने घूस की रकम को स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा करा दिया। नतीजा यह हुआ कि दक्षिणी अमेरिका की विकास दर में गिरावट आई, परंतु भारत के भ्रष्ट नेताओं ने स्विस बैंकों में जमा कराने के साथ-साथ घरेलू उद्यमियों के पास भी यह रकम जमा कराई। लखनऊ के एक उद्यमी ने बताया कि उत्तर प्रदेश के किसी पूर्व मुख्यमंत्री ने 20 करोड़ रुपये जमा कराए थे। मुख्यमंत्री के इस भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। देश की पूंजी सरकारी सड़क के स्थान पर निजी कारखाने में लग गई, जो कि आर्थिक विकास में सहायक हुई।  यदि घूस की रकम का निवेश किया जाए तो अनैतिक भ्रष्टाचार का आर्थिक सुप्रभाव भी पड़ सकता है। मान लीजिए सरकारी निवेश में औसतन 70 फीसदी रकम का सदुपयोग होता है, जबकि निजी निवेश में 90 फीसदी रकम का। ऐसे में यदि एक करोड़ रुपये को भ्रष्टाचार के माध्यम से निकाल कर निजी कंपनियों में लगा दिया जाए तो 20 लाख रुपये का निवेश बढ़ेगा।  अर्थशास्त्र में एक विधा बचत की प्रवृत्ति के नाम से जानी जाती है। अपनी अतिरिक्त आय में से व्यक्ति जितनी बचत करता है उसे बचत की प्रवृत्ति कहा जाता है। गरीब की 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 90 रुपये की खपत करता है और 10 रुपये की बचत करता है। तुलना में अमीर को 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 10 रुपये की खपत करता है और 90 रुपये की बचत करता है। इस परिस्थिति में अमीर इंजीनियर द्वारा गरीब जनता के शोषण का अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। मान लीजिए, विद्युत विभाग के इंजीनियर ने गरीब किसान से 100 रुपये की घूस ली। गरीब की आय में 100 रुपये की गिरावट आई जिसके कारण बचत में 10 रुपये की कटौती हुई, परंतु अमीर इंजीनियर ने 100 रुपये की घूस में 90 रुपये की बचत की। इस प्रकार घूस के लेन-देन से कुल बचत में 80 रुपये की वृद्धि हुई। अमीर द्वारा गरीब का शोषण सामाजिक दृष्टि से गलत होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो गया।  इस विश्लेषण का उद्देश्य भ्रष्टाचार को सही ठहराना नहीं है। नि:संदेह भ्रष्टाचार अनैतिक है। यदि सरकारी विभाग के इंजीनियर ईमानदारी से सड़क बनाएं और प्रस्तावित रकम का सदुपयोग करें तो आर्थिक विकास दर उच्चतम होगी। यहां हमारा चिंतन इस मुद्दे पर है कि भ्रष्ट होने के बावजूद हमारी विकास दर ऊंची क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर है कि हमारी मानसिकता भ्रष्टाचार से मिली रकम को निवेश करने की है। इस कारण भ्रष्टाचार का आम जनता पर दुष्प्रभाव पड़ने के बावजूद अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। गरीब और गरीब हो जाता है, परंतु अमीर को निवेश के लिए रकम मिल जाती है।  गांधीजी कहते थे कि बुजदिली से हिंसा अच्छी है और हिंसा से अहिंसा अच्छी है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार को भी समझना चाहिए। भ्रष्ट अय्याशी की तुलना में भ्रष्ट निवेश अच्छा है और भ्रष्ट निवेश से ईमानदारी अच्छी है। भारत द्वारा भ्रष्ट निवेश करने से भ्रष्टाचार के बावजूद तीव्र आर्थिक विकास हो रहा है। भ्रष्ट अय्याशी के कारण अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका के देशों में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव दिखता है। परंतु सर्वश्रेष्ठ स्थिति ईमानदारी की है। जिस प्रकार गांधीजी ने हिंसा छोड़कर अहिंसा अपनाने को कहा था, उसी प्रकार हमें भ्रष्ट निवेश छोड़कर ईमानदारी को अपनाना चाहिए।
[डॉ. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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फिर वही फटकार   
Wednesday,Apr 23,2014


यह संभवत: केंद्र सरकार को भी स्मरण करना कठिन होगा कि उसे काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट कितनी फटकार लगा चुका है। एक बार फिर उसने केंद्र सरकार से पूछा कि उसके आदेश का पालन क्यों नहीं किया गया? यह आश्चर्यजनक है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन वर्ष पहले कुछ सूचनाएं और दस्तावेज याचिकाकर्ता को देने के आदेश दिए थे, लेकिन उसकी ओर से ऐसा करने से इन्कार किया गया। काले धन के मामले में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार विशेष जांच दल के गठन में भी आनाकानी कर रही है। यह विचित्र है कि एक ओर वह काले धन का पता लगाने, उसके कारोबार पर अंकुश लगाने आदि पर अपनी ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है और दूसरी ओर इस सिलसिले में विशेष जांच दल के गठन के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध भी कर रही है। इस सबसे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि केंद्रीय सत्ता काले धन को लेकर गंभीर नहीं। काले धन के मामले में गंभीरता का परिचय न देने का सीधा मतलब है भ्रष्टाचार से मुंह फेरे रहना। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि सरकार यह दावा करते नहीं थकती कि वह काले धन एवं भ्रष्टाचार के अन्य तौर-तरीकों से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उसकी प्रतिबद्धता यथार्थ रूप में नजर नहीं आती। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी सब के चलते उसकी छवि रसातल में पहुंच गई है और देश-दुनिया को यही संदेश गया है कि भारत सरकार काले धन को लेकर सजग और सक्रिय नहीं। अब तो ऐसा भी लगता है कि इस संदर्भ में उसे सुप्रीम कोर्ट से जो बार-बार फटकार मिल रही है उससे भी वह बेपरवाह हो चुकी है।
यह लगभग तय है कि केंद्र सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के तीन वर्ष पुराने आदेश पर अमल न करने के संदर्भ में कोई न कोई तर्क होगा। ध्यान रहे कि ऐसे ही तर्क उसने घपले-घोटालों पर लगाम न लग पाने के संदर्भ में भी दिए हैं। अब इसकी कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती कि संप्रग सरकार काले धन के मामले में कुछ कर सकेगी, क्योंकि उसके पास समय ही नहीं शेष रह गया है। बावजूद इस सबके इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि काला धन एक बड़ा मुद्दा बन गया है और आने वाली सरकार इस मुद्दे पर उस तरह से आंख नहीं बंद रख सकती जैसी कि मौजूदा सरकार ने रखी। कुछ देशों ने यह दिखाया है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो काले धन पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग सकता है। ऐसी ही इच्छाशक्ति भारत की भावी सरकार को भी दिखानी होगी, क्योंकि यह एक ऐसा मामला बन गया है जिसे ओझल नहीं किया जा सकता। काले धन के मामले में केवल यह तर्क देते रहने से काम नहीं चलने वाला कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की बंदिशों के चलते केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। इस तर्क की आड़ लेने का इसलिए कोई मतलब नहीं, क्योंकि यह जगजाहिर है कि कुछ देशों ने किस तरह इन्हीं परिस्थितियों में उल्लेखनीय काम किया और काले धन पर अंकुश लगाने में बड़ी हद तक सफल भी रहे। यह आवश्यक है कि भारत सरकार भी इस मामले में दिखावटी कार्रवाई के बजाय ठोस पहल करती हुई दिखाई दे।
[मुख्य संपादकीय]
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