Monday 23 June 2014

भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘दुनिया भर में बढ़ रहा जनाक्रोश  
2014-01-29
यह शताब्दी विश्व के इतिहास में ‘उपनिवेशवाद’ के चंगुल से मुक्ति की शताब्दी के रूप में जानी जाएगी। फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों की गुलामी के शिकार दर्जनों देशों को इसी शताब्दी में मुक्ति मिली। इस शताब्दी में मात्र इंगलैंड की गुलामी से जो देश मुक्त हुए उनमें पाकिस्तान, भारत, चीन, श्रीलंका, सूडान, युगांडा, संयुक्त अरब अमीरात व मारीशस आदि शामिल हैं। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद इन देशों को ‘स्वतंत्रता’ तो मिली लेकिन सुशासन नहीं मिला। इसी कारण अनेक देशों में वहां की जागरूक जनता ने कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध आंदोलन छेड़े हुए हैं। यहां तक कि यू.पी.ए.-2 के शासनकाल में हुए अरबों रुपए के घोटालों की ओर से आंखें मूंदे रखने वाली कांग्रेस के नेता राहुल गांधी यह कहने को विवश हुए कि, ‘‘कांग्रेसियों का भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’’ पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्रियों राजा परवेज अशरफ तथा गिलानी के अलावा पूर्व राष्टपति जरदारी पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकद्दमे चल रहे हैं तथा चीन में भ्रष्टाचार के आरोपी व पीपुल्स पार्टी स्टैंडिग कमेटी के पूर्व अध्यक्ष जिआंन हुआ को अदालत ने मौत की सजा सुनाई है। उस पर रिश्वत में लाखों डॉलर नकद, तीन सोने की ईंटें व काफी सामान लेने का आरोप है। गत वर्ष जून में ब्राजील में परिवहन किरायों में वृद्धि, अत्यधिक टैक्सों और विश्व कप के आयोजन में भारी-भरकम घपलों को लेकर आंदोलन भड़क उठे और 15 नवम्बर को उस देश की सर्वोच्च संघीय अदालत ने 25 लोगों के विरुद्ध आरोप तय करके सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग, कैश फार वोट का षड्यंत्र रचने व अन्य आरोपों में गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। इनमें राष्टपति लुई द सिल्वा के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ व उसके 11 साथी भी शामिल थे। यह ब्राजील के इतिहास में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग का अब तक का सबसे बड़ा मामला था। यूनान में भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे बचत अभियान में हेराफेरी के विरुद्ध जन आंदोलन जारी है और अनेक सरकारी अधिकारियों तथा व्यापारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। अनेक धन कुबेरों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिनमें एक बैंक का मुखिया भी शामिल है। आक्रोश की यह चिंगारी खाड़ी के देश ओमान में भी भड़क उठी है और वहां 20 सरकारी अधिकारियों व तेल उद्योग से संबंधित व्यापारियों के विरुद्ध रिश्वत लेने या देने के आरोप में मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। कभी गुलाम न रहने वाले देशों में भी जागरूकता की यह लहर चल पड़ी है। गत वर्ष तुर्की की राजधानी अंकारा में देश के 3 मंत्रियों को विभिन्न परियोजनाओं में भारी अनियमितताओं के चलते पद से त्यागपत्र देना पड़ा। प्रधानमंत्री रेसिप तैयप एरदोगान की सरकार के विरुद्ध 20,000 प्रदर्शनकारियों ने 17 जनवरी को भ्रष्टाचार को लेकर देश व्यापी प्रदर्शन किए। वे नारे लगा रहे थे, ‘‘इस गंदगी को क्रांति द्वारा ही दूर किया जा सकेगा। ये सब चोर हैं।’’ थाईलैंड में पूर्व प्रधानमंत्री थकसिन शिनावात्रा और उनके व्यापारिक साम्राज्य के भारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी जबरदस्त आंदोलन के बीच 2 फरवरी को चुनाव होने जा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि इसशताब्दी की शुरूआत से लेकर अभी तक शिनवात्रा और उनकी पार्टी के लोगों द्वारा अपनी सफलता यकीनी बनाने के लिए  भ्रष्टाचार का ही सहारा लिया गया  है।  शिनावात्रा की बहन यिगलक 2012 से इस देश की प्रधानमंत्री है और इस बार भी उसी के जीतने की संभावना है लेकिन प्रदर्शनकारियों ने शिनवात्रा के विरुद्ध आक्रोश को ‘जन आंदोलन’ में बदल दिया है और सेना तथा लोकतंत्र वादी संस्थाओं से अपने आंदोलन में सहयोग करने का आह्वान किया है।  उक्त देशों की जागरूक जनता द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध थामी गई इस मशाल की लपटें अभी और ऊंची उठेंगी और यह तय है कि ये लपटें विश्व को कोढ़ की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार को जला कर राख करने में किसी सीमा तक अवश्य सफल होंगी।

जड़ पर हमला हो  
 Mon, 06 Jan 2014

घूस के जरिए अकूत धन कमाने वाले लोग पकड़ में आ रहे हैं। भ्रष्ट अफसरों के घर गाहे-बगाहे छापे पड़ते रहते हैं। इस दौरान इतना अवैध धन मिलता है कि आम लोग हैरत में पड़ जाते हैं। घूस लेने वालों के बारे में यह प्रचलित अवधारणा है कि पकड़ में आने पर ही उनके पाप का पता चल पाता है। इसके पहले तक सब साधु बने रहते हैं। अब जबकि सरकार घूसखोरी रोकने के प्रति सख्त है, जितने कम लोग पकड़ में आ रहे हैं, उससे यह कल्पना करना बेमानी ही होगी कि राज्य से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। सवाल उठता है कि कोई अधिकारी किसी खास जगह पर जाने को बेताब क्यों रहता है। लोग सरकारी सेवा में आते हैं। काम के एवज में उन्हें वेतन मिलता है। दूसरी सुविधाएं मिलती हैं। वे करार पर दस्तखत करके आते हैं कि जरूरत के हिसाब से राज्य के किसी भी हिस्से में उनका तबादला किया जा सकता है। लेकिन, व्यवहार में ऐसा होता है क्या? ठीक इसके उलट होता है। मालदार विभाग में तैनात कर्मी नौकरी शुरू करने के अगले ही दिन उन जगहों पर तैनाती के लिए जान लगा देता है, जहां रिश्वत की गुंजाइश है। मसलन, कोई डीटीओ जीटी रोड वाले इलाके में पोस्टिंग के लिए क्यों परेशान रहता है। खनन विभाग के अफसरों को मृत पहाड़ और बालू निकालने वाला इलाका क्यों चाहिए। राजधानी का खास थाना क्यों किसी थानेदार को प्रिय है। उत्पाद महकमा के अफसरों को राजधानी ही क्यों अधिक पसंद है और इंजीनियर साहब क्यों हमेशा कार्य विभाग को ही अपना ध्येय मानते हैं। यह भी कि ट्रांसफर-पोस्टिंग के मौसम में किस खास आदमी के यहां पैरवीकारों की अधिक भीड़ जुटती है। अप्रिय सच यह है कि मनचाही पोस्टिंग की इच्छा में जनसेवा का लेशमात्र भाव नहीं रहता है। क्या भाव रहता है, इसे वे लोग अच्छी तरह जानते हैं, जिनके हाथों में ट्रांसफर-पोस्टिंग की कमान है।  अगर ट्रांसफर-पोस्टिंग को पारदर्शी बना दिया जाए तो घूसखोरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। तब किसी अफसर को यह फिक्र नहीं रहेगी कि लगाकर आए हैं तो लागत से अधिक हासिल करना हमारा अधिकार है। लेकिन, इस माध्यम को पारदर्शी बनाना एक आदर्श कल्पना ही है। इसे सरजमीन पर उतारना मुश्किल है। इसलिए कि पूरा राजनीतिक तंत्र ट्रांसफर-पोस्टिंग और ठेके की कमाई से ही नियंत्रित हो रहा है। यही तंत्र कुल मिलाकर कार्यपालिका पर अपना मालिकाना हक भी रखता है। आज मुख्यधारा में कौन सी राजनीतिक पार्टी है जो आम जनता के बीच जाकर रुपये-दो रुपये चंदा बटोरती है। जबकि हरेक राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लाख-करोड़ ऐसे खर्च हो जाते हैं मानो उनके लिए इतनी बड़ी रकम धेला-पाई के बराबर है। यह अच्छी बात है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी पकड़ में आ रहे हैं। मगर, तंत्र में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह काफी नहीं है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार है, वह भ्रष्टाचार को सचमुच रोकना चाहता है तो उसे फुनगी के बदले जड़ पर प्रहार करना होगा। बरना छापे, बरामदगी, गिरफ्तारी और संपति जब्ती के कर्मकांड होते रहेंगे। पब्लिक अपने काम के लिए घूस भी देगी, सरकार और उसके मुलाजिमों के करतब का मजा भी लेती रहेगी।


भ्रष्टाचार की अर्थव्यवस्था  
 Tue, 08 Jan 2013

देशवासी हर नेता को भ्रष्ट मानते हैं। ऐसे में उदास होने की जरूरत नहीं है। हमें भ्रष्ट नेताओं में सही नीतियां बनाने वाले को समर्थन देना चाहिए। यदि घूस लेने वाले और गलत नीतियां बनाने वाले के बीच चयन करना हो तो मैं घूस लेने वाले को पसंद करूंगा। कारण यह कि घूस में लिया गया पैसा अर्थव्यवस्था में वापस प्रचलन में आ जाता है, लेकिन गलत नीतियों का प्रभाव दूरगामी और गहरा होता है, जैसे सरकार विदेशी ताकतों के साथ गैर-बराबर संधि कर ले, गरीब के रोजगार छीनकर अमीर को दे दे। ऐसे में देश की आत्मा मरती है और देश अंदर से कमजोर हो जाता है।  आम तौर पर माना जाता है कि भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मसलन भ्रष्टाचार के चलते सड़क कमजोर बनाई जाती है, जिससे वह जल्दी टूट जाती है और ढुलाई का खर्च अधिक पड़ता है। इस फार्मूले के अनुसार भारत और चीन की विकास दर कम होनी चाहिए थी, क्योंकि ये देश ज्यादा भ्रष्ट हैं, परंतु वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है। भारत और चीन की विकास दर अधिक है, जबकि ईमानदार देशों की विकास दर या तो ठहर गई है या फिर बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है। जाहिर है कि भारत एवं चीन में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा है। प्रश्न है कि भारत में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव क्यों नहीं दिख रहा है?  भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि इससे प्राप्त रकम का उपयोग किस प्रकार किया जाता है। मान लीजिए एक करोड़ रुपये की सड़क बनाने के ठेके में से 50 लाख रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। सड़क घटिया क्वालिटी की बनी। इस भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ा। अब प्रश्न उठता है कि घूस की 50 लाख की रकम का उपयोग किस प्रकार हुआ। इस रकम को ऐशोआराम में उड़ा दिया गया अथवा शेयर बाजार में लगा दिया गया? यदि रकम को शेयर बाजार में लगाया गया तो भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव कुछ कम हो जाता है और वह उत्पादक होकर आर्थिक विकास में सहायक बन जाता है। मसलन किसी सरकारी विभाग के इंजीनियर ने 50 लाख रुपये के शेयर अथवा बांड खरीद लिए। कंपनी ने इस रकम से नहर बनाई। अर्थव्यवस्था पर अंतिम परिणाम यह पड़ा कि सड़क घटिया बनी, किंतु इस पैसे से नहर बनी। सड़क के ठेके में हुए भ्रष्टाचार का दुष्परिणाम नहर बनने से कुछ कम हो जाता है।  दक्षिणी अमेरिका के देशों एवं भारत में यह अंतर साफ दिखता है। दोनों देशों में घरेलू भ्रष्टाचार व्याप्त है। दक्षिण अमेरिका के नेताओं ने घूस की रकम को स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा करा दिया। नतीजा यह हुआ कि दक्षिणी अमेरिका की विकास दर में गिरावट आई, परंतु भारत के भ्रष्ट नेताओं ने स्विस बैंकों में जमा कराने के साथ-साथ घरेलू उद्यमियों के पास भी यह रकम जमा कराई। लखनऊ के एक उद्यमी ने बताया कि उत्तर प्रदेश के किसी पूर्व मुख्यमंत्री ने 20 करोड़ रुपये जमा कराए थे। मुख्यमंत्री के इस भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। देश की पूंजी सरकारी सड़क के स्थान पर निजी कारखाने में लग गई, जो कि आर्थिक विकास में सहायक हुई।  यदि घूस की रकम का निवेश किया जाए तो अनैतिक भ्रष्टाचार का आर्थिक सुप्रभाव भी पड़ सकता है। मान लीजिए सरकारी निवेश में औसतन 70 फीसदी रकम का सदुपयोग होता है, जबकि निजी निवेश में 90 फीसदी रकम का। ऐसे में यदि एक करोड़ रुपये को भ्रष्टाचार के माध्यम से निकाल कर निजी कंपनियों में लगा दिया जाए तो 20 लाख रुपये का निवेश बढ़ेगा।  अर्थशास्त्र में एक विधा बचत की प्रवृत्ति के नाम से जानी जाती है। अपनी अतिरिक्त आय में से व्यक्ति जितनी बचत करता है उसे बचत की प्रवृत्ति कहा जाता है। गरीब की 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 90 रुपये की खपत करता है और 10 रुपये की बचत करता है। तुलना में अमीर को 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 10 रुपये की खपत करता है और 90 रुपये की बचत करता है। इस परिस्थिति में अमीर इंजीनियर द्वारा गरीब जनता के शोषण का अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। मान लीजिए, विद्युत विभाग के इंजीनियर ने गरीब किसान से 100 रुपये की घूस ली। गरीब की आय में 100 रुपये की गिरावट आई जिसके कारण बचत में 10 रुपये की कटौती हुई, परंतु अमीर इंजीनियर ने 100 रुपये की घूस में 90 रुपये की बचत की। इस प्रकार घूस के लेन-देन से कुल बचत में 80 रुपये की वृद्धि हुई। अमीर द्वारा गरीब का शोषण सामाजिक दृष्टि से गलत होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो गया।  इस विश्लेषण का उद्देश्य भ्रष्टाचार को सही ठहराना नहीं है। नि:संदेह भ्रष्टाचार अनैतिक है। यदि सरकारी विभाग के इंजीनियर ईमानदारी से सड़क बनाएं और प्रस्तावित रकम का सदुपयोग करें तो आर्थिक विकास दर उच्चतम होगी। यहां हमारा चिंतन इस मुद्दे पर है कि भ्रष्ट होने के बावजूद हमारी विकास दर ऊंची क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर है कि हमारी मानसिकता भ्रष्टाचार से मिली रकम को निवेश करने की है। इस कारण भ्रष्टाचार का आम जनता पर दुष्प्रभाव पड़ने के बावजूद अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। गरीब और गरीब हो जाता है, परंतु अमीर को निवेश के लिए रकम मिल जाती है।  गांधीजी कहते थे कि बुजदिली से हिंसा अच्छी है और हिंसा से अहिंसा अच्छी है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार को भी समझना चाहिए। भ्रष्ट अय्याशी की तुलना में भ्रष्ट निवेश अच्छा है और भ्रष्ट निवेश से ईमानदारी अच्छी है। भारत द्वारा भ्रष्ट निवेश करने से भ्रष्टाचार के बावजूद तीव्र आर्थिक विकास हो रहा है। भ्रष्ट अय्याशी के कारण अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका के देशों में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव दिखता है। परंतु सर्वश्रेष्ठ स्थिति ईमानदारी की है। जिस प्रकार गांधीजी ने हिंसा छोड़कर अहिंसा अपनाने को कहा था, उसी प्रकार हमें भ्रष्ट निवेश छोड़कर ईमानदारी को अपनाना चाहिए।
[डॉ. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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फिर वही फटकार   
Wednesday,Apr 23,2014


यह संभवत: केंद्र सरकार को भी स्मरण करना कठिन होगा कि उसे काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट कितनी फटकार लगा चुका है। एक बार फिर उसने केंद्र सरकार से पूछा कि उसके आदेश का पालन क्यों नहीं किया गया? यह आश्चर्यजनक है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन वर्ष पहले कुछ सूचनाएं और दस्तावेज याचिकाकर्ता को देने के आदेश दिए थे, लेकिन उसकी ओर से ऐसा करने से इन्कार किया गया। काले धन के मामले में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार विशेष जांच दल के गठन में भी आनाकानी कर रही है। यह विचित्र है कि एक ओर वह काले धन का पता लगाने, उसके कारोबार पर अंकुश लगाने आदि पर अपनी ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है और दूसरी ओर इस सिलसिले में विशेष जांच दल के गठन के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध भी कर रही है। इस सबसे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि केंद्रीय सत्ता काले धन को लेकर गंभीर नहीं। काले धन के मामले में गंभीरता का परिचय न देने का सीधा मतलब है भ्रष्टाचार से मुंह फेरे रहना। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि सरकार यह दावा करते नहीं थकती कि वह काले धन एवं भ्रष्टाचार के अन्य तौर-तरीकों से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उसकी प्रतिबद्धता यथार्थ रूप में नजर नहीं आती। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी सब के चलते उसकी छवि रसातल में पहुंच गई है और देश-दुनिया को यही संदेश गया है कि भारत सरकार काले धन को लेकर सजग और सक्रिय नहीं। अब तो ऐसा भी लगता है कि इस संदर्भ में उसे सुप्रीम कोर्ट से जो बार-बार फटकार मिल रही है उससे भी वह बेपरवाह हो चुकी है।
यह लगभग तय है कि केंद्र सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के तीन वर्ष पुराने आदेश पर अमल न करने के संदर्भ में कोई न कोई तर्क होगा। ध्यान रहे कि ऐसे ही तर्क उसने घपले-घोटालों पर लगाम न लग पाने के संदर्भ में भी दिए हैं। अब इसकी कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती कि संप्रग सरकार काले धन के मामले में कुछ कर सकेगी, क्योंकि उसके पास समय ही नहीं शेष रह गया है। बावजूद इस सबके इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि काला धन एक बड़ा मुद्दा बन गया है और आने वाली सरकार इस मुद्दे पर उस तरह से आंख नहीं बंद रख सकती जैसी कि मौजूदा सरकार ने रखी। कुछ देशों ने यह दिखाया है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो काले धन पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग सकता है। ऐसी ही इच्छाशक्ति भारत की भावी सरकार को भी दिखानी होगी, क्योंकि यह एक ऐसा मामला बन गया है जिसे ओझल नहीं किया जा सकता। काले धन के मामले में केवल यह तर्क देते रहने से काम नहीं चलने वाला कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की बंदिशों के चलते केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। इस तर्क की आड़ लेने का इसलिए कोई मतलब नहीं, क्योंकि यह जगजाहिर है कि कुछ देशों ने किस तरह इन्हीं परिस्थितियों में उल्लेखनीय काम किया और काले धन पर अंकुश लगाने में बड़ी हद तक सफल भी रहे। यह आवश्यक है कि भारत सरकार भी इस मामले में दिखावटी कार्रवाई के बजाय ठोस पहल करती हुई दिखाई दे।
[मुख्य संपादकीय]
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