Monday 27 October 2014

विदेशों में कालाधन?




विदेशों में कालाधन?

21, AUG, 2014, THURSDAY 

ललित सुरजन
जब 1977 में केन्द्र में मोरारजी देसाई की सरकार बनी तो उसने ''रॉ'' के तमाम दस्तावेजों की छानबीन इस उम्मीद से करवाई कि इंदिरा-गांधी और संजय गांधी ने इस गुप्तचर संगठन का दुरुपयोग अपने निजी लाभ के लिए किस तरह किया होगा। यूं तो इस जांच से कुछ भी हासिल नहीं हुआ, लेकिन वित्त मंत्रालय व रिजर्व बैंक की फाइलों में एक ऐसा प्रकरण सामने आया जिससे सरकार ने यह समझा कि ''रॉ'', उसके प्रमुख आर.एन. काव, उपप्रमुख शंकरन नायर को कटघरे में खड़ा करना मुमकिन होगा। यह प्रकरण आपातकाल का था जिसमें श्री नायर को जिनेवा के एक बैंक खाते में छह मिलियन डॉलर जमा करने भेजा गया था। मोरारजी देसाई को संदेह हुआ कि हो न हो, यह खाता संजय गंाधी का है। जब छानबीन पूरी हुई तो मामला कुछ और ही निकला। 1974 के पोखरण आण्विक प्रयोग के बाद अमेरिकी सरकार ने भारत को दी जाने वाली सहायता में भारी कटौती कर दी थी। देश में गंभीर आर्थिक संकट था। तब भारत सरकार ने ईरान के शाह से दो सौ पचास मिलियन डॉलर का कर्ज आसान शर्तों पर मांगा था। इसके लिए इंदिरा सरकार ने हिन्दूजा बंधुओं की सेवाएं लीं (जिनके बहुत अच्छे संबंध शाह के साथ थे)। उन्होंने शाह की बहन अशरफ पहलवी के माध्यम से ऋण हेतु आवेदन करवाया और शाह ने भारत को सहायता देना स्वीकार कर लिया। इस राशि का एक हिस्सा कर्नाटक की कुदुर्मुख लौहअयस्क परियोजना में लगना था और दूसरे भाग का उपयोग देश की आवश्यक वस्तुओं की आयात करने के लिए होना था। शाह की बहन अशरफ पहलवी ने इस ऋण पर छह मिलियन डॉलर का कमीशन अपने एक ईरानी नागरिक रशीदयान को देने के लिए कहा। यह व्यक्ति अशरफ का घनिष्ठ मित्र था। हिन्दूजा के माध्यम से भारत सरकार को संदेश मिलने पर रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने जिनेवा के एक बैंक को टेलेक्स पर इस राशि का ड्राफ्ट बनाकर श्री नायर को सौंपने का निर्देश दिया। इसके बाद वित्त मंत्रालय ने श्री काव से आग्रह किया कि नायर जिनेवा जाकर बैंक ड्राफ्ट हासिल कर लें और उसे रशीदयान के खाते में जमा कर दें। बात यहां खत्म हो गई।
ये सारे तथ्य प्रकाश में आए तो मोरारजी देसाई ने बात को आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा तथा बिना किसी अगली कार्रवाई के फाइल बंद कर दी। हिन्दूजा संजय गांधी के जितने करीब थे उससे कहीं ज्यादा उनकी घनिष्टता मोरारजी देसाई, अटलबिहारी वाजपेयी व लालकृष्ण आडवानी से थी। जब उन्हें समझ में आया कि कमीशन हिन्दूजा की सिफारिश पर दिया गया है। तब फिर स्वाभाविक ही बात आगे बढ़ाने की उन्हें इच्छा नहीं रही। यह सुदीर्घ उद्धरण मैंने बी. रामन की पुस्तक ''द काव बॉय•ा ऑफ आर. एण्ड ए.डब्ल्यू: डाउन मेमौरी लेनÓÓ से लिया है। पुस्तक 2007 में प्रकाशित हुई थी और मैं इसे प्राप्त नहीं कर सका था।  कुछ दिन पहले अपने मित्र डॉ. परिवेश मिश्र की निजी लाइब्रेरी से पुस्तक मिली तो उसे पढ़ते हुए यह प्रसंग सामने आया। बी. रामन का निधन पिछले साल ही हआ है। वे मध्यप्रदेश कैडर के 1961 बैच के आईपीएस अधिकारी थे तथा 1965-66 में दुर्ग में जिला पुलिस अधीक्षक के पद पर भी कुछ समय रहे थे। वहां कुछ लोगों को शायद अब भी श्री रामन की याद हो! बहरहाल, ऊपर मैंने जिस प्रसंग का वर्णन किया है उसे मैं वर्तमान संदर्भों से जोड़कर पाठकों के सामने रखना चाहता हूं, लेकिन इसके पहले श्री रामन की किताब के पहले अध्याय का एक अंश का •िाक्र करने की अनुमति कृपया मुझे दें। यह कुछ लोगों को आश्चर्यजनक लग सकता है कि अपनी आत्मकथा के पहले पन्ने पर ही श्री रामन ने अमेरिकी विदेश मंत्रालय के प्रति क्रोध और नफरत का इजहार किया है। संक्षेप में इतना कहना पर्याप्त होगा कि अमेरिका किस तरह से भारत की बाँहें मरोडऩे में लगा रहता था इसका ही वर्णन लेखक ने किया है। श्री रामन ने छब्बीस साल ''रॉÓÓ में बिताए। वे देश के एक आला गुप्तचर थे। उन्होंने सेवानिवृत होने के बाद मिले तमाम ऑफरों को ठुकरा दिया था। ऐसे व्यक्ति की बात पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं बनता। खैर, बी. रामन ने जनता सरकार के समय के जिस किस्से का वर्णन किया है वह भारत में पिछले कुछ समय से काले धन को लेकर चल रही बहस की ओर हमें ले जाता है। देश में कितना काला धन है या वह अर्थव्यवस्था का कितना प्रतिशत है जैसे तकनीकी विवरणों में पैठने की क्षमता मेरे पास नहीं है, किन्तु इतना अवश्य समझ में आता है कि काले धन के बारे में हो रही बड़ी-बड़ी बातें सच्चाई को पूरी तरह से बयान नहीं करती। जो लोग मोदी सरकार बनने के अगले दिन विदेशों में जमा काले धन को वापिस लाने का वायदा कर रहे थे, वे अब पूरी तरह से चुप हैं। इस विषय को जोर-शोर से उठाने वाले बाबा रामदेव न सिर्फ रहस्यमय तरीके से मौन हैं, बल्कि ऐसा लगता है कि वे अंर्तध्यान हो गए हैं! वे मोदीजी के शपथ ग्रहण से लेकर आज तक कहां हैं, यह वेदप्रताप वैदिक आदि  उनके निकट सहयोगियों को ही पता होगा! हमें एक सीधी बात समझ में आती है कि सरकार चलाने के लिए बहुत से प्रपंच करना पड़ते हैं। इंदिराजी के समय विदेशी मुद्रा की दरकार थी तो ईरान के शाह से उस तरह से सहायता नहीं मांगी जा सकती थी, जैसे कि आप या हम आवश्यकता पडऩे पर किसी दोस्त या रिश्तेदार से पैसे मांग लेते। इसलिए इंदिराजी को हिन्दूजा बंधुओं से बात करना पड़ी, उन्होंने शाह की बहन से बात की जिसने अपने भाई से कहकर काम तो करवा दिया, लेकिन साथ-साथ अपने दोस्त का भी भला कर दिया। जनता पार्टी सरकार आई तो उसे भी अपने दोस्त हिन्दूजा का लिहाज करना पड़ा। मतलब यह कि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में बहुत से दरवाजों से गुजरना पड़ता है। उस दौर में विदेश नीति और अर्थनीति के बीच तब भी एक दूरी थी, लेकिन आज तो माहौल पूरी तरह बदल चुका है। आपके वैदेशिक संबंध बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करते हैं कि किसी देश के साथ आपका खरीद बिक्री का क्या रिश्ता है।जो भी व्यक्ति व्यापार व्यवसाय की थोड़ी सी समझ रखता है वह जानता है कि कोई भी सौदा बिना भाव-ताव के तय नहीं होता। जब सौदे का आकार बड़ा होता है तो कमीशन की रकम भी बढ़ जाती है। निजी कंपनियों में तो यह होता ही है, सरकारी कंपनियों को भी इसके लिए एजेंट नियुक्त करना पड़ते हैं क्योंकि वे सीधे-सीधे कमीशन का लेन-देन नहीं कर सकते। इस दृष्टि से देखें तो पहले या आज जब भी सरकार या सरकारी उपक्रमों ने बड़े-बड़े सौदे किए हैं तो उसमें मध्यस्थों की भूमिका होना ही थी। शायद यही वजह है कि चाहे बोफोर्स का मामला हो, चाहे आगुस्ता वेस्टलैण्ड का, चाहे कुछ और। इस सबमें विपक्ष को हल्ला मचाने के लिए और सत्ता पक्ष पर आक्रमण करने के लिए अवसर जरूर मिल जाता है, लेकिन वे स्वयं जब सत्ता में आते हैं तो चुप रहने में ही भलाई समझते हैं। अमेरिका से लेकर जापान तक सब जगह यही दस्तूर है। भारत में यदि हल्ला मचता है तो वह हमारी राजनीति की अपरिपक्वता को दर्शाता है। यह तस्वीर का एक पहलू है। ऐसे सौदों के मार्फत यदि कोई राजनीतिक दल पार्टी फंड इकट्ठा करें तो उसे कैसे अपराध माना जाए, मैं नहीं जानता। हां! यदि पार्टी फंड का इस्तेमाल निजी संपत्ति बढ़ाने के लिए किया गया हो तो वह क्षमा योग्य नहीं है। तस्वीर का दूसरा पहलू वह कालाधन है जो निजी क्षेत्र द्वारा टैक्स चोरी आदि से उत्पन्न होता है और विदेश भेजकर मॉरिशस, दुबई या सिंगापुर जैसे रास्तों से वापस आ जाता है। इस तरह का धन संचय जहां अपराधों को बढ़ावा देता है वहीं इससे समाज में गैरबराबरी और असंतोष भी बढ़ता है। जो व्यक्ति इस तरह से पैसा कमाते हैं उनके मन में न तो देशप्रेम का भाव होता है और न देश की जनता के प्रति वे अपनी कोई जवाबदारी महसूस करते हैं। इसके विपरीत वे अपने पैसे के बल पर राजनेताओं को खरीदते हैं तथा उनसे अपने हित में गलत-सलत निर्णय लेने की अपेक्षा करते हैं। यही लोग ''कौआ कान ले गयाÓÓ की तर्ज पर विदेशों में कालाधन का मुद्दा उठाते हैं ताकि इनके अपने अपराधों पर परदा पड़ा रहे।
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काले धन का जवाब

Sun, 19 Oct 2014

इसमें दोराय नहीं हो सकती कि काले धन के मामले में केंद्र सरकार के इस जवाब से लोगों को निराशा हुई है कि जिन देशों से दोहरे कराधान संबंधी संधि है वहां काला धन जमा करने वाले भारतीयों के नाम उजागर नहीं किए जा सकते। ध्यान रहे कि यह वही जवाब है जो मनमोहन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दिया था और जिसके चलते उसकी चौतरफा आलोचना हुई थी। आलोचना करने वालों में भाजपा भी शामिल थी। क्या यह अजीब नहीं कि भाजपा ने जिस जवाब के लिए पिछली सरकार की घेरेबंदी की वही जवाब उसने भी देना पसंद किया? केंद्र सरकार के नीति-नियंताओं को यह आभास होना चाहिए था कि काले धन के मामले में पिछली सरकार जैसा जवाब दाखिल करने पर जनता में कैसी प्रतिक्रिया होगी? यह सही है कि केंद्र सरकार के इस जवाब के लिए दोहरे कराधान संबंधी संधि उत्तारदायी है और उसे आनन-फानन नहीं बदला जा सकता, लेकिन यह संधि कोई पत्थर की लकीर भी नहीं हो सकती। ऐसी किसी संधि को तो प्राथमिकता के आधार पर बदलने की कोशिश होनी चाहिए जो कुल मिलाकर काला धन बटोरने और जमा करने वालों के हितों की रक्षा करती हो। यह एक किस्म की अनैतिक संधि है। यह समझना कठिन है कि क्या सोचकर 1995 में यह संधि की गई? काले धन के मामले में कम से कम उन लोगों को तो शोर मचाने का अधिकार नहीं दिया जा सकता जिन्होंने इस संधि को आकार दिया। क्या कोई बताएगा कि किन कारणों के चलते काले धन के खातों के मामले में स्वर्ग माने जाने वाले देशों के साथ ऐसी संधि की गई? सवाल यह भी है कि काले धन पर तमाम हल्ला-गुल्ला मचने के बावजूद किसी ने इस संदिग्ध किस्म की संधि से पीछा छुड़ाने के बारे में क्यों नहीं सोचा?
यह संतोषजनक है कि काले धन पर सुप्रीम कोर्ट में सरकार के जवाब पर मचे शोर-गुल के बाद वित्तामंत्री अरुण जेटली ने यह स्पष्ट किया कि सरकार काला धन रखने वालों का पता लगाने, उनके नाम सार्वजनिक करने और उन्हें दंडित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उन्होंने यह भी आश्वासन दिया है कि इस मामले में सरकार एक परिपक्व दृष्टिकोण के साथ सामने आएगी। उनके इस आश्वासन पर यकीन न करने कोई कारण नहीं, लेकिन बेहतर होता कि सरकार सुप्रीम कोर्ट में ऐसे ही दृष्टिकोण से लैस होकर पहुंचती। मोदी सरकार से यह भी वांछित है कि वह दोहरे कराधान संबंधी संधि पर नए सिरे से विचार करे। मौजूदा हालात में यह आवश्यक भी है और पहले के मुकाबले आसान भी, क्योंकि अब सभी देश यह महसूस कर रहे हैं कि काले धन का कारोबार करने वाले अर्थव्यवस्था को नुकसान पहुंचाने के साथ संबंधित देश की छवि खराब करने का भी काम कर रहे हैं। चूंकि ऐसे कारोबारी हर देश में सक्रिय हैं इसलिए सभी देशों और विशेष रूप से काला धन जमा करने में विशेष सहूलियत देने वाले देशों को अपनी रीति-नीति पर नए सिरे से विचार करना ही होगा। यदि वे ऐसा करने में आनाकानी करते हैं तो भारत को उन देशों के साथ मिलकर कोई पहल करनी चाहिए जहां के लोगों ने बड़े पैमाने पर विदेशों में काला धन जमा कर रखा है। इस मामले में अमेरिका की तरह भारत को भी सख्त रवैया अपनाने की जरूरत है।
[मुख्य संपादकीय]
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उलटा रुख

जनसत्ता 20 अक्तूबर, 2014: देश से बाहर जमा काले धन को वापस लाएंगे, लोकसभा चुनाव में भाजपा का यह एक खास मुद््दा था। नरेंद्र मोदी अपनी हर चुनावी रैली में यह वादा जोर-शोर से दोहराते थे। उन्होंने कहा था कि बाहर के विभिन्न बैंकों में चोरी-छिपे देश के अरबों-खरबों रुपए जमा हैं; वे देश की पाई-पाई वापस लाएंगे, वह सारा पैसा गरीबों में बांट देंगे। कभी कहा कि हर गरीब परिवार के हिस्से करीब पंद्रह लाख रुपए आएंगे, कभी कहा कि हर गरीब आदमी को तीन लाख रुपए हासिल होंगे। पार्टी के अन्य तमाम नेता भी यही राग अलापते थे कि बाहर जमा काला धन जल्दी ही वापस आएगा, बस भाजपा के सत्ता में आने की देर है। लेकिन केंद्र की सत्ता संभालने के पांच महीने बाद अब भाजपा भी वही कह रही है जो कांग्रेस कहती थी। काले धन पर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई के दौरान पिछले हफ्ते मोदी सरकार ने कहा कि वह विदेशों में गुप्त खाता रखने वाले भारतीयों के नाम उजागर नहीं करेगी, क्योंकि ऐसा किया गया तो काले धन संबंधी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए भारत से समझौता कर चुके देश नाराज हो जाएंगे। यही बात यूपीए सरकार भी कहती थी कि दोहरे कराधान से बचाव के समझौते खुलासे के आड़े आ रहे हैं। तब भाजपा नेताओं को यह दलील निरी बहानेबाजी लगती थी। उन्होंने यूपीए सरकार के हर स्पष्टीकरण को खारिज करते हुए काले धन की वापसी को लेकर उसके गंभीर न होने, यहां तक कि उस पर दोषियों को बचाने का भी आरोप मढ़ा था। पर अब मोदी सरकार का भी रुख वही है जो यूपीए सरकार का था। और अब स्वामी रामदेव खामोश हैं, जिन्होंने काले धन की वापसी को लेकर आंदोलन चलाया था! वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि सारी अड़चन उन समझौतों की वजह से आ रही है जो पिछली सरकार ने किए थे। अगर यह बाधा दूर की ही नहीं जा सकती, तो भाजपा ने सत्ता मिलने पर काला धन वापस लाने का वादा क्यों किया?

क्या यह कहना गलत होगा कि भाजपा इस मामले में शुरू से सब्जबाग दिखाती रही है? जिनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च अदालत ने बाहर जमा काले धन की जांच के लिए विशेष टीम के गठन का आदेश दिया था, उन्होंने यानी राम जेठमलानी ने मोदी सरकार की दलीलों को सिरे से खारिज कर दिया है, यह कहते हुए कि ये दलीलें आरोपियों को ही शोभा देती हैं, सरकार को नहीं। सर्वोच्च अदालत ने अंतरराष्ट्रीय करारों की आड़ लेने पर यूपीए सरकार को खरी-खोटी सुनाई थी और यह तक कहा था कि अगर ये करार बाधक साबित हो रहे हैं, तो अच्छा होगा कि ऐसे करार न किए जाएं। तब यूपीए सरकार जिस कठघरे में खड़ी थी, अब मोदी सरकार भी वहीं नजर आ रही है। सवाल यह भी उठता है कि अगर मोदी सरकार सचमुच काले धन पर अंकुश लगाने और उसे पकड़ने के लिए संजीदा है, तो उसका प्रवाह बंद करने के लिए वह क्या कर रही है। काला धन केवल वही नहीं है जो स्विस बैंकों और इस तरह के अन्य विदेशी ठिकानों में जमा है। रिश्वतखोरी और शेयर बाजार में पहचान छिपा कर निवेश करने से लेकर फर्जी कंपनियां खड़ी करने तक काले धन की ढेर सारी प्रक्रियाएं हैं। चुनाव में भी बड़े पैमाने पर काला धन इस्तेमाल होने की बात कही जाती है। इस सारे गोरखधंधे को बंद करने के कदम क्यों नहीं उठाए जा रहे हैं?
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यह सियासी मुद्दा नहीं

नवभारत टाइम्स| Oct 27, 2014,

मशहूर वकील और पूर्व केंद्रीय मंत्री राम जेठमलानी ने कालेधन के मामले में सरकार की भूमिका पर अपनी नाराजगी जताई है। उन्होंने वित्त मंत्री अरुण जेटली को चिट्ठी लिखकर उनकी खूब खिंचाई की है। जेठमलानी ने इस बारे में पीएम को भी पत्र लिखने का फैसला किया है। राजनीति में जेठमलानी की भले ही विवादास्पद छवि बनी हुई हो, मगर काला धन के खिलाफ उनके अभियान की गंभीरता पर संदेह नहीं किया जा सकता। उन्होंने जो सवाल उठाए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं, जिनसे सरकार नजरें नहीं चुरा सकतीं। उनका आरोप है कि नई सरकार इस मुद्दे पर लीपापोती में जुट गई है।

जेठमलानी जैसे कुछ लोगों को छोड़ दिया जाए तो पिछले चुनावों में काला धन को मुद्दा बनाने वालों के बारे में कहना मुश्किल है कि वे इसे लेकर कितना गंभीर थे। जिस हल्के तरीके से इसे उठाया गया और गैर जिम्मेदार ढंग से बड़ी-बड़ी राशियां बताई गईं ,उससे यह संदेह होना स्वाभाविक था कि तमाम बयानों का असल मकसद इस मुद्दे को राजनीतिक तौर पर भुनाना था। अफसोस की बात यह है कि चुनाव जीतने और सत्ता में आने के बाद भी बीजेपी का नजरिया बहुत बदला नहीं है। सरकार ने पहले तो कोर्ट में काला धन रखने वालों के नाम बताने में असमर्थता जताई, फिर कुछ नाम बताने के लिए तैयार भी हो गई। बाद में अरुण जेटली ने कहा कि अगर हमने नाम बता दिए तो कांग्रेस को शर्मिंदगी उठानी पड़ेगी।

इन सबसे तो यही लगता है कि सरकार अब भी इसे मूलत: एक राजनीतिक मुद्दा मान कर चल रही है। मगर आम जनता इस मसले पर बेहद गंभीर है। लोग चाहते हैं कि बीजेपी की अगुवाई वाली यह सरकार अपना चुनावी वादा पूरा करते हुए विदेशों में जमा काला धन वापस लाए ताकि उन्हें महंगाई और टैक्स के बोझ से थोड़ी राहत मिले। लेकिन गवर्नमेंट का रवैया टालमटोल का ही दिखता है। जहां तक अदालत में दिए गए सरकारी हलफनामे की बात है तो उसके औचित्य पर अदालत फैसला करेगी। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि काला धन एक बड़ा मसला है और अदालत में चल रहा मुकदमा या एसआईटी की जांच इसका एक बहुत छोटा पक्ष है।

विदेशी बैंकों में पड़ा काला धन तो एक बात है, लेकिन जो ब्लैक मनी विदेशों से हमारी अर्थव्यवस्था में अलग-अलग तरीकों से डाली जा रही है, उस पर अंकुश लगाने के लिए सरकार क्या कर रही है? देश के अंदर जो काला धन लगातार बन और फल-फूल रहा है, उसके बारे में भी उसकी कोई चिंता अभी तक नहीं दिखी है। ऐसे में जरूरी है कि मोदी सरकार राजनीति छोड़ कर इस मसले पर पूरी ईमानदारी से देश के सामने स्थिति स्पष्ट करे। जो कुछ वह कर सकती है, उसे जल्द से जल्द अंजाम दे और जो नहीं कर सकती, उसके बारे में भी खुलकर बताए। कम से कम लोग इस बारे में किसी भ्रम में न रहें।
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जन दबाव से ही आएगा काला धन

मोदी सरकर ने अपनी कैबिनेट की पहली बैठक में जो इकलौता फैसला किया था, वह था कालेधन की जांच और निगरानी के लिए विशेष जांच दल के गठन का। जिस तरह त्वरित तौर पर यह फैसला लिया गया, सरकार को काफी बधाई मिली। लेकिन अब एक बार फिर यह सवाल पैदा हो गया है कि क्या काले धन का खुलासा और इसे वापस लाने का मसला सिर्फ चुनावी मुद्दा बना रहेगा? चंद दिनों पहले सुप्रीम कोर्ट में केंद्र सरकार के हलफनामे में यह मजबूरी बताई गई कि विदेशी बैंकों के खाताधारकों के नाम का खुलासा नहीं किया जा सकता, क्योंकि सरकार अंतरराष्ट्रीय संधि यानी डबल टैक्सेशन एवॉयडेंस ट्रीटी से बाध्य है। इस संधि के मुताबिक जब तक किसी के खिलाफ इनकम टैक्स का मामला कोर्ट में दर्ज नहीं हो जाता, तब तक उसका नाम सार्वजनिक नहीं किया जा सकता। यहां विपक्ष का यह सवाल उठाना वाजिब है कि जब बीजेपी को यह बात पहले से पता थी तो जनता को क्यों गुमराह किया गया। हालांकि अब बीजेपी कह रही है कि वह दरअसल कांग्रेस सरकार के दौरान की गई संधि के कारण बेबस है। सरकार पर जब थोड़ा दबाव पड़ा और उसे लगने लगा कि आम लोग उसके इस तर्क से सहमत नहीं होंगे तो वित्त मंत्री अरुण जेटली ने कहा कि अगर विदेशों में काला धन रखने वालों का नाम सामने आता है तो कांग्रेस को ही शर्मिदगी उठानी पड़ेगी। जाहिर है, कांग्रेस की तरफ से इस बयान पर तीखा जवाब दिया गया और चुनौती दी गई कि सरकार पूरे 800 नाम सामने लाए। दरअसल सरकार इससे पहले सुप्रीम कोर्ट को 136 लोगों के नाम बताने को तैयार हुई थी। यहां सरकार की मंशा पर सवालिया निशान लगना स्वाभाविक है कि आखिर क्यों वह नाम सार्वजनिक करने को तैयार नहीं और फिर वह क्यों केवल 136 नाम ही कोर्ट को देने की तैयारी में जुटी है? क्या ये नाम ऐसे हैं जिन्हें सामने रखने से उसे राजनीतिक लाभ मिलने वाला है? क्या 800 नामों में वैसे लोग भी शामिल हैं जिन्हें बीजेपी सरकार इसलिए सामने नहीं लाना चाहती कि इससे उसे नुकसान होगा। गौरतलब कि महाराष्ट्र और हरियाणा चुनाव में कांग्रेस ने यह बात लोगों के सामने जोरशोर से रखी कि प्रधानमंत्री के उस वादे का क्या हुआ जिसमें 100 दिन के भीतर काला धन वापस लाने की बात कही गई थी। लोगों ने हालांकि बीजेपी के पक्ष में मतदान किया लेकिन कहीं न कहीं काले धन को लेकर सरकार की प्रतिबद्धता के लेकर उनके मन में भी संदेह आया होगा। लोग स्वाभाविक तौर पर यह चाहते हैं कि सरकार नाम जाहिर करने में ठोस इच्छाशक्ति दिखाए। जनता चाहती है कि सरकार काले धन के खुलासे की राह में मौजूद हर अड़चन को दूर करे। ऐसा नहीं होता है तो विपक्ष इस मुद्दे को आगामी महीनों में होने वाले चुनावों में हथियार के तौर पर आजमाएगा। गौर करने वाली बात है कि भाजपा काफी लंबे समय से काले धन की वापसी का मसला उठाती रही है। 2009 के चुनाव के दौरान लालकृष्ण आडवाणी ने इसे चुनावी मुद्दा बनाया था और पिछले लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने। ऐसे में स्वाभाविक था कि सरकार इस मसले पर अपना ध्यान केंद्रित करती और इस मुद्दे पर राजनीति न करते हुए जनता का दिल जीतती। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि विदेशों में मौजूद काले धन की अगर देशवापसी होती है तो आर्थिक मोर्चे पर परेशानी झेल रहे देश को काफी हद तक राहत मिलेगी। अमेरिकी संस्था जीएफआई के 2008 के अनुमान के मुताबिक भारत का करीब 23 लाख करोड़ काला धन और भारतीय उद्योग एवं वाणिज्य परिसंघ ‘फिक्की’ के आंकड़ों के मुताबिक करीब 45 लाख करोड़ रपए विदेशी बैंकों में जमा हैं। दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक स्विस बैंकों में भारतीयों के करीब 85 अरब करोड़ रपए जमा थे। एक अरब से अधिक आबादी वाले इस देश का सालाना बजट भी इससे कम है। पिछली सरकार ने जर्मनी की सरकार के कहने के बावजूद कोई कदम नहीं उठाया था। यह साफ है कि कई विदेशी सरकारें इस मुद्दे पर जानकारी साझा करने को तैयार है, वे दूसरी तरह की मदद भी करने को राजी है, लेकिन हमने ही अभी तक कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई थी, बल्कि किसी न किसी तरह इस मुद्दे को टालने मे लगे हुए थे। पहले यह संभव था कि सरकार कोई एमनेस्टी स्कीम लाती और टैक्स छूट के नाम पर लोगों को काले धन को सफेद बनाने का मौका दिया जाता। सरकार के पास यह विकल्प पहले बिलकुल खुला हुआ था लेकिन जैसे-जैसे यह मसला कोर्ट में अपनी जड़ें जमाता रहा, सरकार के पास से यह विकल्प निकल गया। सुप्रीम कोर्ट में इसी अप्रैल में तत्कालीन सरकार ने उन 18 लोगों की जानकारी दी थी जिन्होंने कथित रूप से जर्मनी के लिचेंस्टीन में स्थित एलएसटी बैंक में काला धन जमा कर रखा था और जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने जांच भी शुरू कर दी है। इतना होते हुए भी इन लोगों के नाम जाहिर नहीं किए गए थे। आगे एक-एक कर नाम जाहिर किए जाने चाहिए। एसआईटी के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश एमवी शाह और उपाध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायाधीश अरिजीत पसायत को इस मुद्दे को तेजी से सुलझाने की दिशा में आगे आना चाहिए। काला धन आज महज एक धारणा नहीं है बल्कि यह तथ्यात्मक रूप से भी हमारे सामने है। अवैध तरीके से धन अर्जित करने वालों की तादाद बढ़ती जा रही है। अब तक इन पर ज्यादा गौर नहीं किया गया है। हमारे यहां एक धारणा यह बना दी गई कि काले धन पर अंकुश लगाना अदालत का काम है, जो पूरा सच नहीं। काले धन के पीछे की मुख्य वजह भ्रष्टाचार ही है। स्विस बैंक में जो भी पैसा जमा है वह भ्रष्टाचारियों की वजह से है। ये भ्रष्टाचारी कहां से आते हैं और इन्हें कौन शह देता है, इसकी जानकारी शायद सभी को है। राजनीति इसकी जड़ है। जनता को चाहिए कि वह काले धन को लेकर अपनी जागरूकता का परिचय देते हुए फैसला ले और वोट देने का एक आधार यह भी बनाए कि इस मोर्चे पर कौन कैसा काम कर रहा है। दरअसल विदेशी बैंकों में जमा काला धन वह पैसा है जो परोक्ष रूप से आम लोगों की जेब से ही निकला है। भ्रष्टाचार और काले धन की समस्या को मिटाना है तो जनता का जागरूक होना ही सबसे प्राथमिक विकल्प है। चूंकि राजनीति जनता के दबाव में चलती है इसलिए लोगों को सचेत होना ही होगा। हालांकि भ्रष्टाचार और काला धन अब नौकरशाही और प्रशासन में भी घर कर गया है। इकॉनामिक र्वल्ड में तो इसकी पहुंच है ही। आगे काला धन एक बैंक से दूसरे बैंक में ट्रांसफर किया जा सकता है। काले धन से संबंधित जांच-पड़ताल में गुणवत्ता और मुकदमे की समय सीमा कम करना अत्यंत जरूरी है। इनकम टैक्स विभाग को भी अपनी कार्यपण्राली में आमूल सुधार करना होगा। मुझे यह स्पष्ट लग रहा है कि काला धन को वापस लाना आसान नहीं होगा, लेकिन आगे इतना जरूर होगा कि काले धन का प्रवाह विदेशी बैंकों की ओर रुकेगा। जनता ने बीजेपी पर विास करके उसे वोट दिया है। पहले लोकसभा चुनाव में, फिर विधानसभा चुनाव में। सरकार को यह समझना चाहिए कि वह जन विास को तोड़ कर काले धन के मसले को राजनीतिक दांव- पेच में ही उलझाए रखेगी तो आगे उसे नुकसान उठाना पड़ेगा। उसकी जनस्वीकार्यता घटेगी।

(लेखक सीबीआई के निदेशक रहे हैं)

काले धन का हिसाब




काले धन का हिसाब   

 Monday,Jun 23,2014

यह संतोषजनक है कि स्विट्जरलैंड सरकार की ओर से यह कहा गया कि वह ऐसे भारतीयों की सूची बना रही है जिन पर संदेह है कि उन्होंने काला धन स्विस बैंकों में जमा कर रखा है, लेकिन देखना यह है कि ऐसी कोई सूची भारत को कब और किस रूप में हासिल होती है? नि:संदेह स्विट्जरलैंड सरकार के इस रुख से विदेश में जमा काले धन का पता लगाने की भारत की कोशिश को बल मिलेगा, लेकिन इस मामले में और भी बहुत कुछ करने की आवश्यकता है। यह भी स्पष्ट है कि केवल स्विट्जरलैंड सरकार के सहयोग भरे रुख से बात बनने वाली नहीं है, क्योंकि इस तरह के बैंक दुनिया के अन्य देशों में भी हैं और इसकी भरी-पूरी संभावना है कि वहां भी भारतीयों ने अच्छा खासा धन जमा कर रखा हो। इस धन के संदर्भ में इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि यह केवल कर चोरी के रूप में हासिल किया गया धन नहीं है। इसमें से एक अच्छा-खासा धन वह है जो अवैध और अनुचित तरीके से कमाया गया है। दुनिया के जिन देशों में बिना किसी पूछ-परख के काला धन जमा करने की सुविधा है वे मूलत: विकसित देश हैं और यह जगजाहिर है कि वे अपने दशकों पुराने गोपनीयता कानूनों की आड़ में यह जानकारी देने से बचते रहते हैं कि किन देशों के किन लोगों का किस तरीके का धन उनके बैंकों में जमा है।
नि:संदेह विकसित देश इससे अच्छी तरह परिचित हैं कि उनके यहां के निजी और सरकारी बैंकों में विदेशी लोगों का जो धन जमा है उसमें एक बड़ा हिस्सा गलत तरीके से कमाए गए धन का है, लेकिन वे ऐसी हर कोशिश का विरोध करते हैं जिससे काला धन जमा करने वाले लोगों के नाम उजागर हों और संबंधित देशों की सरकार उनके खिलाफ कोई कार्रवाई कर सके। एक ओर वे दावा करते हैं कि उनके यहां किसी तरह के गलत कार्यो को सहयोग-संरक्षण नहीं दिया जाता और दूसरी ओर काले धन के मामले में वे इसके ठीक विपरीत व्यवहार करते हैं। निराशाजनक यह है कि काले धन की रोकथाम के सिलसिले मेंसंयुक्त राष्ट्र की ओर से पहल किए जाने के बावजूद विकसित देश अपना रवैया बदलने के लिए तैयार नहीं हैं। यही कारण है कि भारत और उसके जैसे अन्य देश चाहकर भी उन लोगों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर पा रहे हैं जिन्होंने विदेशी बैंकों में बड़ी मात्रा में काला धन जमा कर रखा है। कुछ समय पहले अमेरिका ने कुछ देशों से अपने यहां के लोगों के बैंक खातों की जानकारी हासिल कर ली थी, लेकिन यह एक सच्चाई है कि अमेरिका जैसी स्थिति अन्य देशों की नहीं हो सकती। इन स्थितियों में यह जरूरी हो जाता है कि विकसित देश अपने यहां ऐसे कानून बनाएं जिससे कोई भी उनके यहां काला धन न जमा कर सके। यह भी जगजाहिर है कि कुछ देशों में ऐसे बैंक हैं जो काला धन ही जमा करने का काम करते हैं। विकसित देश इससे अपरिचित नहीं हो सकते कि यह काला धन विकासशील और गरीब देशों में किस तरह गरीबी और असमानता को बढ़ावा दे रहा है। इन स्थितियों में यह उनकी नैतिक जिम्मेदारी बनती है कि वे आगे आएं और ऐसे कदम उठाएं जिससे उनके यहां काला धन न जमा हो सके।
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अब लाएं काला धन     

नवभारत टाइम्स | Jun 24, 2014

बाहर से ब्लैक मनी लाने का पूरा प्रकरण कहीं 'खोदा पहाड़ निकली चुहिया' न साबित हो। एक तरफ स्विट्जरलैंड सरकार ने कहा है कि उसने ऐसे संदिग्ध भारतीयों की सूची तैयार की है, जिन्होंने काला धन स्विस बैंकों में जमा किया हुआ है और स्विस अधिकारी इसे भारत सरकार से साझा करने पर विचार कर रहे हैं। अच्छी बात है। लेकिन दूसरी तरफ स्विट्जरलैंड के प्रमुख बैंकों ने जो रहस्योद्घाटन किया है, उससे पता चलता है कि वहां जमा पैसा हमारे अनुमान से बेहद कम है। जो लोग उस पैसे के बूते भारतीय इकॉनमी के कायापलट का सपना देख या दिखा रहे थे, उन्हें वह राशि सुनकर झटका लग सकता है। स्विट्जरलैंड के केंद्रीय बैंक स्विस नैशनल बैंक (एसएनबी) ने पिछले दिनों अपने बैंकों में जमा धन पर आंकड़े जारी किए, जिसके मताबिक बीते साल स्विस बैंकों में भारतीयों की दौलत 43 फीसद बढ़कर 2.03 अरब फ्रैंक यानी करीब 14 हजार करोड़ रुपये हो गई। अब इतने धन से क्या-क्या किया जाए? चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि विदेशों से काला धन लाकर देशवासियों में बांटा जाएगा। इसका एक तरीका तो यह हो सकता है कि सरकार अपने पहले बजट में (और संभव हो तो कुछ अगले बजटों में भी) वेतनभोगियों को टैक्स से तगड़ी राहत दे दे। लेकिन विदेश में जमा काले धन का ऐसा कोई सदुपयोग तो वह तब करेगी, जब पैसे वापस आएं। यह इतना आसान नहीं है। बीजेपी अपनी पूर्ववर्ती यूपीए सरकार पर इस मामले को उलझाने का आरोप लगाती रही है। अब इसे सुलझाने की जिम्मेदारी उस पर आ गई है। वित्त मंत्री अरुण जेटली का कहना है कि स्विट्जरलैंड से उन्हें कोई औपचारिक सूचना नहीं मिली है, पर वे खुद ही स्विस प्रशासन को लिखकर इसकी प्रक्रिया पूछ रहे हैं। इस संबंध में सरकार जो कर सकती है, उसे करना चाहिए। एसआईटी बनाकर उसने एक सकारात्मक संकेत तो दिया है, हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि बाहर से पैसे लाने का तरीका क्या होगा। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि विदेश से काला धन लाने से कहीं ज्यादा चुनौती देश में काला धन पैदा होने से रोकने और अब तक जमा ऐसे पैसे को बाहर निकालने की है। उनके अनुसार विदेश जाने वाला काला धन घूम-फिरकर हमारे देश में ही आ जाता है और कई लेवल पर उसका निवेश होता रहता है। यही नहीं, कई कारोबारों और यहां तक कि चुनाव में भी ब्लैक मनी का इस्तेमाल धड़ल्ले से हो रहा है, लेकिन इसे एक्सपोज करना आसान नहीं है। एसआईटी जैसी संस्था वहां सफल हो सकती है, जहां कानून के फंदे कारगर हों, लेकिन बड़े पैमाने पर ब्लैक मनी के चलन को रोकने के लिए नीतिगत उपाय जरूरी हैं। सरकार को नहीं भूलना चाहिए कि उसने जनता से काले धन को लेकर बड़े-बड़े वादे कर रखे हैं। यह पैसा देश के बाहर से आए या भीतर से, इसका उपयोग अर्थव्यवस्था के विकास में होना चाहिए।  -
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सुराग और सवाल

जनसत्ता 23 जून, 2014 : शायद पहली बार स्विट्जरलैंड सरकार ने उन संदिग्ध भारतीयों की सूची तैयार की है, जिन्होंने चोरी-छिपे वहां के बैंकों में अपना पैसा जमा किया हुआ है। इस सूची को तैयार करने के साथ ही उसने कहा है कि भारत सरकार से संबंधित जानकारी साझा की जाएगी। इससे वहां भारतीयों के जमा काले धन का पता लगाने की पहल थोड़ी आगे बढ़ी है। निश्चय ही इसका श्रेय हमारे सर्वोच्च न्यायालय को जाता है, जिसने काले धन की बाबत एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए एसआइटी यानी विशेष जांच टीम गठित करने का निर्देश दिया था और इसकी समय-सीमा भी तय कर दी थी। लिहाजा, मोदी सरकार को पिछले महीने एसआइटी के गठन की घोषणा करनी पड़ी। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज एमबी शाह एसआइटी के अध्यक्ष हैं और एक अन्य पूर्व जज अजित पसायत उपाध्यक्ष। जबकि आय कर विभाग, प्रवर्तन निदेशालय और खुफिया एजेंसियों के कुछ आला अधिकारी इसमें सदस्य के तौर पर शामिल हैं। स्विट्जरलैंड सरकार ने इस एसआइटी को सहयोग करने का भरोसा दिलाया है। पर अभी यह कहना जल्दबाजी होगी कि वहां जमा काले धन को वापस लाने का रास्ता खुल गया है। अगर स्विस सरकार कोई सूची मुहैया करा भी देती है, तो जैसा कि न्यायमूर्ति शाह ने कहा है, उसका सत्यापन करना होगा। यह पता लगाना होगा कि कौन-सी रकम वास्तव में कर-चोरी और दूसरे अवैध तरीकों का परिणाम है। फिर भी, स्विट्जरलैंड की ताजा घोषणा एक सकारात्मक संकेत जरूर है। स्विट्जरलैंड के बैंक दुनिया भर के तमाम भ्रष्ट लोगों का पैसा गोपनीय ढंग से जमा रखने के लिए बदनाम रहे हैं। पर कुछ बरसों से कई और देशों के भी कुछ बैंक इस कतार में शामिल हैं। यह संभव है कि स्विट्जरलैंड सरकार पर बढ़ते दबाव को देखते हुए बहुतों ने अपना पैसा इसी तरह के दूसरे देशों के बैंकों में स्थानांतरित कर दिया हो। इस पूरे गोरखधंधे की छानबीन कर पाना एक जटिल काम है। यों भारत ने बहुत-से देशों के साथ दोहरे कराधान से बचाव और कर-चोरी रोकने की संधियां कर रखी हैं। पर इनसे अब तक कुछ खास फर्क नहीं पड़ा है। अगर किसी देश ने खातों की जानकारी दी भी, तो तत्परता से जांच और कार्रवाई करने के बजाय टालमटोल का रवैया अख्तियार किया गया। मसलन, 2009 में जर्मनी के कर-विभाग ने, द्विपक्षीय संधि के तहत, जिन भारतीय खाताधारकों के नाम बताए थे, उन पर हमारे आय कर विभाग ने तीन साल तक चुप्पी साधे रखी। आखिरकार सर्वोच्च अदालत के तलब करने पर ही उन खातों का खुलासा हो सका। बहरहाल, स्विट्जरलैंड के ताजा रुख से क्या हासिल होगा, वह आगे की बात है। सवाल है कि यह सारी रकम चोरी-छिपे बाहर कैसे चली जाती है? बाहर जमा काले धन की इतनी चर्चा होती है, पर इसके स्रोत और रास्ते देश के भीतर ही हैं। उन्हें बंद करने के लिए क्या हो रहा है? रिश्वतखोरी और कर-चोरी काला धन बनने के चिर-परिचित तरीके हैं। पर इसका दायरा बहुत फैल चुका है और इसकी प्रक्रिया बहुस्तरीय है। शेयर बाजार में पहचान छिपा कर किए जाने वाले निवेश और बिलों में हेराफेरी से लेकर फर्जी कंपनियां बनाने तक काले धन के बहुत-से रास्ते हैं। ‘मॉरीशस-मार्ग’ से किए जाने वाले निवेश पर भी शक जताया जाता है। काले धन का इससे भी खतरनाक पहलू हथियारों और मादक पदार्थों की तस्करी से जुड़ा हुआ है। जमीन-जायदाद के कारोबार और यहां तक कि चुनावों के भी काले धन से किसी-न-किसी हद तक प्रभावित होने की बात कही जाती है। इसलिए इस मसले को केवल विदेशी गुप्त खातों तक सीमित करके देखना बेहद सरलीकरण होगा। यह जरूरी है कि काले धन को इसके पूरे परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तभी उससे निपटने की समग्र नीति और कार्य-योजना बनाई जा सकेगी।
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काले धन पर नजर  

जनसत्ता 29 मई, 2014 : देश से बाहर जमा भारतीयों के काले धन का पता लगाने के लिए एसआइटी यानी विशेष जांच टीम का गठन नई केंद्र सरकार का पहला बड़ा फैसला है। पर असल में इसका श्रेय सर्वोच्च न्यायालय को जाता है, जिसने इस मामले में एसआइटी गठित करने का निर्देश दे रखा था और इसकी समय-सीमा भी तय कर दी थी। यहां तक कि  एसआइटी किनके नेतृत्व में गठित होगी, यह भी उसने तय कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश एमबी शाह एसआइटी के अध्यक्ष और एक दूसरे सेवानिवृत्त जज अरिजित पसायत उपाध्यक्ष बनाए गए हैं। एसआइटी के सदस्यों में वित्त मंत्रालय और खुफिया एजेंसियों के कई आला अधिकारियों को शामिल किया गया है। इस तरह विदेशों में जमा काले धन का पता लगाने और उसे वापस लाने की उम्मीद से जुड़ी यह शायद पहली गंभीर पहल है। सर्वोच्च अदालत में यह मामला कई साल से एक जनहित याचिका के जरिए चल रहा था। यूपीए सरकार ने इस मामले में टालमटोल भरा रवैया दिखाया, जो इससे भी जाहिर है कि जर्मनी के लिंशटेसटाइन बैंक के सत्रह भारतीय खाताधारकों के नाम पता चलने के तीन साल बाद उजागर हो सके, वह भी सर्वोच्च न्यायालय के दबाव में। भारतीय जनता पार्टी ने 2009 के चुनाव में और इस बार भी काले धन की वापसी को एक बड़ा मुद्दा बनाया। इसके चलते काला धन आम चर्चा का विषय बना है। मगर इस मसले पर राजनीतिक दलों का रवैया एक लोकलुभावन पैंतरे का ही रहा है। यही वजह है कि विदेशों में स्विस बैंकों के खातों के किस्से तो चलते रहते हैं, पर देश में रोज चोरी-छिपे होने वाली कमाई पर सवाल नहीं उठते। एसआइटी की जांच भी बाहर जमा काले धन का पता लगाने के बारे में होगी। इस दिशा में कितनी कामयाबी मिल पाएगी, फिलहाल कहना मुश्किल है। यह मसला बहुत कुछ अन्य देशों की सरकारों के सहयोग पर निर्भर करता है। यों भारत ने दोहरे कराधान से बचाव के करार बहुत-से देशों से कर रखे हैं, पर वहां से काले धन से संबंधित सूचनाएं अपवादस्वरूप ही मिल पाई हैं। मसलन, करार के मुताबिक जर्मनी के आय कर विभाग ने लिंशटेसटाइन बैंक के कई भारतीय खाताधारकों के नाम कुछ साल पहले भारत सरकार को बताए थे। अमेरिका खुलासे के लिए स्विट्जरलैंड पर दबाव बनाने में सफल हो सका, भारत को भी वैसी पुरजोर कोशिश करनी चाहिए। पर काले धन के विदेशी खाते स्विट्जरलैंड के कुछ बैंकों तक सीमित नहीं हैं, इस कतार में कई और देशों के भी कुछ बैंक शामिल हैं। इन बैंकों के धंधे वहां की सरकारों की रजामंदी से ही चलते हैं। इसलिए बाहर जमा काले धन की पूरी तरह पड़ताल कर पाना आसान नहीं होगा। 
गोपनीयता के परदे में होने के कारण ऐसे खातों की बाबत प्रामाणिक जानकारी पाना संभव नहीं हो सका है। पर अनुमान है कि दुनिया भर के गुप्त खातों में जमा रकम में करीब आधी हिस्सेदारी अकेले भारत के भ्रष्ट लोगों की है। पर देश में पैदा होने वाले काले धन का यह एक अंश मात्र होगा। इसलिए बड़ा सवाल यह है कि देश के भीतर जो पैसा कानून की आंख में धूल झोंक कर बनाया जाता है, उसके बारे में कार्रवाई के लिए सरकार कितनी संजीदा है। रिश्वतखोरी और कर-चोरी अवैध कमाई की चिर-परिचित तरकीबें हैं। पर बिलों में धोखाधड़ी, पहचान छिपा कर शेयर बाजार में किए जाने वाले निवेश से लेकर फर्जी कंपनियां चलाने तक काले धन के और ढेरों तरीके हैं, जो हमारी अर्थव्यवस्था की सतह के नीचे बड़े पैमाने पर रोज आजमाए जाते हैं। काले धन की इन प्रक्रियाओं और रास्तों को बंद करने के लिए हमें दूसरे देशों का मुंह नहीं जोहना है। फिर, इस मोर्चे पर सक्रियता क्यों नहीं दिखती है? 

Monday 23 June 2014

काला धन

काला धन लाने की चिंता, हटाने की नहीं

नवभारत टाइम्स | Jun 3, 2014

सुधांशु रंजन
केंद्र सरकार ने अपने पहले महत्वपूर्ण निर्णय में विदेशों में जमा काले धन पर एक विशेष जांच दल (एसआईटी) का गठन कर दिया है। काले धन के आकार के बारे में कई अनुमान आते रहते हैं। एक आंकड़े के अनुसार यह राशि लगभग 79 लाख करोड़ रुपए है, हालांकि विदेशी बैंकों में देश का कितना काला धन जमा है, इसका कोई प्रामाणिक आंकड़ा किसी के पास नहीं है। अंतरराष्ट्रीय वाचडॉग ग्लोबल फाइनैंशल इंटीग्रिटी (जीएफआई) के अनुसार सिर्फ सन 2011 में 4 लाख करोड़ रुपए अवैध तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। यह 2010 के मुकाबले 24 प्रतिशत अधिक था। 2011 में भारत सरकार का बजट खर्च लगभग 13 लाख करोड़ रुपए था। यानी अवैध रूप से बाहर जाने वाली राशि औसतन सालाना बजट खर्च का लगभग एक-तिहाई है।
काला धन और गंदा धन
देश से बाहर धन भेजने का सबसे सरल तरीका आयात-निर्यात में कीमतों को बढ़ा-घटा कर पेश करना है। आयात में कीमतें ज्यादा चुकाई जाती हैं ताकि वास्तविक मूल्य से ज्यादा ऊपर की राशि बाहरी बैंकों में जमा कराई जा सके। इसी प्रकार निर्यात में कीमत कम दिखाई जाती है ताकि दामों में जो अंतर है वह राशि बाहर जमा कर दी जाए। जीएफआई के मुताबिक 2011 में विकासशील देशों से 1000 अरब अमेरिकी डॉलर विदेशी बैंकों में गए। इनमें रूस से सर्वाधिक 191 अरब डॉलर गए। इसके बाद चीन का नंबर था जहां से 151 अरब डॉलर गए। तीसरे स्थान पर भारत रहा जिसके 85 अरब डॉलर काले धन के रूप में बाहर गए।
त्रुटिपूर्ण बिलिंग के अलावा हवाला के जरिए भी काफी सारा धन बाहर जाता है। महाराष्ट्र के हवाला व्यापारी हसन अली पर आरोप है कि उसके 36,000 करोड़ रुपए बाहर जमा हैं। जांचकर्ताओं के अनुसार उसने भ्रष्ट बाबुओं एवं नेताओं के लिए एक समानांतर बैंकिंग नेटवर्क चला रखा है। उसका धंधा 1982 में 5 करोड़ रुपए से शुरू हुआ जो उसने सिंगापुर के यूबीएस बैंक में जमा किए थे। 1999 में यह रकम बढ़कर 1 अरब अमेरिकी डॉलर हो गई जो उस समय की डॉलर की कीमत के अनुसार 4500 करोड़ रुपए हुए। अभी तक उसने इन पैसों में से 5 करोड़ का भी कोई साफ हिसाब नहीं दिया है। 2001 में अमेरिका में ट्विन टावर पर हुए हमले के बाद अली के खाते में धन बेतहाशा बढ़ा। इसकी वजह यह बताई जाती है कि अमेरिका एवं अन्य कई देशों ने आतंकवादी संगठनों से जुड़े खातों में कारोबार बंद कर दिया था और उनके दबाव में ये खाते फ्रीज कर दिए गए थे। यही वह समय था जब अली हसन के खाते में धन तेजी से आने लगा।
अवैध धन दो प्रकार के होते हैं- काला धन और गंदा धन। काला धन वह है जिस पर कर नहीं चुकाया गया है, लेकिन गंदा धन वह है जो अपराध के जरिए प्राप्त किया जाता है। इसलिए हर गंदा धन काला धन है, लेकिन हर काला धन गंदा धन नहीं है। 1970 के दशक में विदेशी मुद्रा के भंडार में कमी आने पर कई कानून बने। 1973 में फेरा (विदेशी मुद्रा नियमन कानून) तथा 1974 में कोफेपोसा (विदेशी मुद्रा संरक्षण एवं तस्कर गतिविधियां निरोधक कानून) बनाए गए। इनमें दंड के प्रावधान उतने कड़े नहीं थे। बाद में जब फेरा को बदलकर फेमा (विदेशी मुद्रा प्रबंधन कानून) बना तो दंड और भी कम कर दिए गए। इनमें अधिकतर दीवानी प्रावधान के तहत आते हैं।
2002 में काले धन को सफेद करने से रोकने के लिए अधिनियम बना। इसकी अनुशंसा 1999 में ही वित्त मंत्रालय की संसदीय समिति ने की थी, किंतु कानून 2002 में बना और लागू तीन वर्ष बाद 2005 में हुआ। इसकी धारा 12(1) में कम से कम तीन वर्ष और अधिकतम सात वर्ष के सश्रम कारावास का दंड है। साथ में 5 लाख रुपए तक का जुर्माना भी हो सकता है। इसमें काले धन से अर्जित संपत्ति की कुर्की-जब्ती का भी प्रावधान है। 2013 में संशोधन कर इसे और सख्त बनाया गया है।
अदालत बनाम सरकार
इसके बावजूद काले धन के मोर्चे पर खास सफलता मिलती नहीं दिख रही। इसके आकार में लगातार हो रही वृद्धि का एक बड़ा कारण यह है कि नाम पता होने के बावजूद विदेशी बैंकों में खाता रखने वालों के खिलाफ अभी तक कोई ठोस कार्रवाई शुरू नहीं हुई है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगातार नाराजगी व्यक्त किए जाने के बाद केंद्र सरकार ने अदालत में 26 व्यक्तियों की सूची जमा की जिनके खाते जर्मनी के लीचेंस्टाइन बैंक में हैं। जो सूची उच्चतम अदालत में दी गई है और जो 18 नाम सार्वजनिक किए गए हैं, उनमें भी संबंधित लोगों को सिर्फ कारण बताओ नोटिस जारी किया गया है, उन पर मुकदमा नहीं हुआ है। काले धन के खिलाफ जो कोशिशें अदालत और सरकार के स्तर पर की जा रही हैं उनमें जोर विदेशों में छुपाए गए काले धन पर है। देश के अंदर जो बड़े पैमाने पर काला धन है उस पर किसी का खास ध्यान नहीं है। जबकि पिछले दो वर्षों में छापों से आयकर विभाग द्वारा बरामद की गई रकम ही देखें तो यह 18,700 करोड़ रुपए बैठती है।
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अब लाएं ब्लैक मनी

नवभारत टाइम्स | May 24, 2014,

काले धन के मामले पर सुप्रीम कोर्ट काफी गंभीर है। अब इस मामले में सरकार की परीक्षा होगी। चुनाव में यह एक बड़ा मुद्दा रहा। इस संबंध में तरह-तरह की बातें कही गईं, जिनमें कुछ हवाई भी थीं। बीजेपी ने आश्वासन दे डाला कि उसकी सरकार बनेगी तो विदेश में जमा काला धन लाया जाएगा और उसे देश में बांट दिया जाएगा। बहरहाल, आशा की जानी चाहिए कि अदालत के आदेश पर गठित होने वाली एसआईटी के सक्रिय होने के बाद इस संबंध में कुछ ठोस चीजें सामने आएंगी और उलझनें दूर होंगी। गौरतलब है कि 1 मई को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को निर्देश दिया था कि वह तीन सप्ताह के भीतर एसआईटी की नियुक्ति के लिए अधिसूचना जारी करे। गुरुवार को यह समय सीमा समाप्त होने वाली थी लेकिन सरकार ने इसके लिए एक सप्ताह की मोहलत और मांगी, जिसे अदालत ने मान लिया। कोर्ट ने देश-विदेश में काले धन से जुड़े सभी मामलों की जांच में सहयोग और दिशा-निर्देश देने के लिए अपने सेवानिवृत्त न्यायाधीशों एमबी शाह को एसआईटी का अध्यक्ष और अरिजित पसायत को उपाध्यक्ष नियुक्त किया था। 4 जुलाई 2011 के आदेश के तहत एसआईटी के उपाध्यक्ष नियुक्त किए गए जस्टिस शाह सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज बीपी जीवन रेड्डी का स्थान लेंगे, जिन्होंने निजी कारणों से अध्यक्ष पद पर बने रहने में असमर्थता जाहिर की थी। पिछले महीने सरकार ने कोर्ट को उन 18 व्यक्तियों की जानकारी दी थी, जिन्होंने कथित रूप से जर्मनी के लिशटेंसटाइन में स्थित एलएसटी बैंक में कालाधन जमा कर रखा था और जिनके खिलाफ आयकर विभाग ने मुकदमा शुरू किया है। यह पूरा प्रकरण काफी उलझा हुआ है। किसी को ठीक-ठीक नहीं मालूम कि विदेशी बैंकों में या हमारे देश में कुल कितना काला धन जमा है? एक अनुमान के अनुसार यह राशि लगभग 79 लाख करोड़ रुपया है।
अंतरराष्ट्रीय संस्था 'ग्लोबल फाइनैंशल इंटेग्रिटी' के अनुसार वर्ष 2011 में 4 लाख करोड़ रुपये अवैध तरीके से भारत के बाहर ले जाए गए। लेकिन कई विशेषज्ञ मानते हैं कि विदेश जाने वाला काला धन घूम-फिरकर हमारे देश में ही आ जाता है और कई लेवल पर उसका निवेश होता रहता है। इस तबके की राय है कि विदेशी बैंकों में जमा काले धन से कहीं ज्यादा फिक्र अपने मुल्क में दिन-रात पैदा हो रही ब्लैक मनी की करनी चाहिए। विदेशी बैंकों से ज्यादा जानकारी लेना और कार्रवाई करना आसान नहीं है। दूसरी ओर हमारे देश में कई कारोबारों और चुनाव तक में धड़ल्ले से ब्लैक मनी का इस्तेमाल हो रहा है, लेकिन इसे एक्सपोज करना आसान नहीं है। एसआईटी वहां सफल हो सकती है जहां कानून के फंदे कारगर हों, लेकिन बड़े पैमाने पर ब्लैक मनी के चलन को रोकने के लिए नीतिगत उपाय करने होंगे।
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वापस लाएं विदेशों में जमा काला धन    

 नवभारत टाइम्स  | Feb 11, 2014  भारत डोगरा

विदेशों में जमा काले धन का मुद्दा हमारे देश में कभी बहुत जोर-शोर से उठाया जाता है, कभी सालों-साल ठप्प पड़ा रहता है। इतना ही नहीं, जब मुद्दा जोर पकड़ता है तब भी इसके पीछे प्रायः कोई संकीर्ण राजनीतिक उद्देश्य होता है, ताकि किसी को निशाना बनाया जा सके। कुल मिलाकर संकेत यह जाता है, जैसे यह महज भारत के कुछ राजनीतिक दलों के बीच का मुद्दा हो। हकीकत यह है कि पूरी दुनिया में टैक्स चोरी, भ्रष्टाचार और अपराधों से प्राप्त धन को गुप्त रूप से संजोने के लिए और अंतरराष्ट्रीय व्यापार में कई तरह की हेरा-फेरी संभव करने के लिए 'टैक्स हेवनों' का एक जाल बिछा हुआ है, जिसमें दुनिया के कुछ सबसे धनी व्यक्तियों के स्वार्थ जुड़े हुए हैं। इनमें वे अरबपति व्यक्ति व वित्तीय संस्थान भी हैं, जो ऊपरी तौर पर विधि सम्मत कार्य कर रहे हैं।

शक्तिशाली स्वार्थों का खेल


ऐसे निहित स्वार्थों के कारण ही इन 'टैक्स हेवनों' के विरुद्ध अब तक कोई असरदार कार्रवाई नहीं हुई। लेकिन हाल के वित्तीय संकट के बाद यह बेहतर ढंग से समझा गया कि जब तक एक समानांतर, गुप्त व काफी हद तक अवैध अर्थव्यवस्था दुनिया के पैमाने पर चलती रहेगी, तब तक विश्व वित्तीय व्यवस्था में स्थिरता नहीं आ सकेगी। अतः अब विश्व स्तर पर 'टैक्स हेवनों' और गुप्त खातों के विरुद्ध कार्रवाई का बेहतर माहौल बन रहा है। जो विकसित देश इनके रक्षक माने जाते थे, वहां भी इनके विरुद्ध कुछ कार्यवाही शुरू हुई है।  शक्तिशाली स्वार्थ इन्हें कितना आगे बढ़ने देंगे, यह सवाल अभी बना हुआ है, लेकिन कुल मिलाकर गुप्त खातों व टैक्स चोरी के विरुद्ध असरदार कदम उठाने का अब पहले से बेहतर माहौल है। भारत सरकार को चाहिए कि इस माहौल का लाभ उठाते हुए वह विदेश में जमा काले धन को वापस लाने के प्रयास तेज करे। अंतत: विश्व स्तर पर उचित कानूनी व्यवस्था होने से ही विदेश में जमा काला धन देश में लाना संभव होगा। केवल एक तरफा कार्रवाई बहुत आगे नहीं जा पाएगी। ग्लोबल फ़ाइनैंशल इंटीग्रिटी द्वारा प्रस्तुत हाल के अनुभवों के अनुसार निर्धन देशों से बाहर जाने वाले अवैध वित्तीय ट्रांसफर पिछले दशक में तेजी से बढे़ हैं और इनका मूल्य प्रतिवर्ष 1000 अरब डॉलर या इससे भी अधिक हो सकता है। माना जा रहा है कि इन देशों को जितना भी विदेशी निवेश और विदेशी सहायता मिलती है, उससे कहीं अधिक धन अवैध तरीकों से बाहर जाता है। दुनिया के सबसे धनी देशों के संगठन 'ऑर्गनाइज़ेशन फॉर इकनॉमिक कोऑपरेशन ऐंड डिवेलपमेंट' (ओईसीडी) ने हाल की एक रिपोर्ट में स्वीकार किया है कि अवैध धन से संबंधित सावधानियां बरतने में इसके 34 में से 22 सदस्य कसौटी पर खरे नहीं उतरे हैं। जिन भ्रष्टाचारियों की लूट प्रमाणित हो चुकी है, उनके अपने यहां जमा धन को रिकवर कर उसे लौटाने का काम इन देशों में बहुत धीमी गति से हुआ है। वर्ष 2010-12 के दौरान ऐसे महज 15 करोड़ डॉलर लौटाए गए। वैसे इस रिपोर्ट के बारे में भी कहा जा रहा है कि शक्तिशाली निहित स्वार्थों को चोट पहुंचाने वाले कई तथ्य इसमें से हटा दिए गए हैं। जैसे, बहुराष्ट्रीय कंपनियां कुछ कंपनियों को अपनी सहायक कंपनी बताकर उनके आयात-निर्यात की कीमत इस तरह दिखाती हैं कि बहुत कम मुनाफा टैक्स के दायरे में आ पाता है। ब्रिटेन जैसे बड़े विकसित देश अब अधिक दोष उन छोटे स्वायत्त क्षेत्रों को दे रहे हैं जो अब तक इन 'अभिभावक' देशों के ही नियंत्रण में काम करते रहे हैं। अब इन सभी पर दबाव पड़ रहा है कि वे अवैध वित्तीय गतिविधियों में कमी लाएं। गुप्त विदेशी खातों की खोज व जांच के लिए विश्व स्तर पर एक समझौते की चर्चा हो रही है जिसे 'मल्टीलैटरल कंवेंशन ऑन म्यूचुअल एडमिनिस्ट्रेटिव अस्सिटेंस इन टैक्स मैटर्स' (टैक्स मुद्दों पर आपसी प्रशासनिक सहायता के लिए बहुपक्षीय समझौता) का नाम दिया गया है। इसे 55 से 60 देश अपना चुके हैं या अपनाने की स्वीकृति दे चुके हैं। काले धन के खिलाफ सक्रिय एक संगठन टैक्स जस्टिस नेटवर्क के अनुमान के मुताबिक दुनिया के धनी व्यक्तियों के इस समय कुल लगभग 15 ट्रिलियन डॉलर या 15 लाख करोड़ डॉलर टैक्स हेवंस में जमा हैं। सन 1980 से शुरू लिबरलाइजेशन के दौर में यहां जमा धन तीन गुना से अधिक बढ़ गया है। इस सुविधा का लाभ उठाकर विश्व के अति धनी व्यक्ति व संस्थान हर साल 250 अरब डॉलर का टैक्स बचाते हैं, जो संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित विश्व सहस्राब्दी लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी धनराशि से कहीं अधिक है। वरना फिर लौटेगा संकट विश्व स्तर पर बहुत वित्तीय संकट खड़ा करने में इन 'टैक्स हेवनों' की बड़ी भूमिका रही है और इन्हें बंद नहीं किया गया, या कड़े नियंत्रण में नहीं लाया गया तो ऐसे संकटों की वापसी की संभावना बहुत बढ़ जाएगी, क्योंकि यह विश्व अर्थव्यवस्था में अपराध, मुनाफाखोरी और जालसाजी को बढ़ावा देने वाली एक समांतर व्यवस्था है। अतः 'टैक्स हेवनों' के विरुद्ध संयुक्त कार्रवाई में अब और देर नहीं होनी चाहिए तथा ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था बनाने में भारत को अहम भूमिका निभानी चाहिए।

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ब्लैक मनी: भारत दुनिया के टॉप-5 देशों में    

  |Dec 13, 2013   पीटीआई, वॉशिंगटन

ब्लैक मनी देश से बाहर भेजने के मामले में भारत दुनिया के टॉप 5 देशों में है। जी हां, एक नई रिपोर्ट से यह बात सामने आई है। इसमें कहा गया है कि 2002 से 2011 के बीच भारत ब्लैक मनी का दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा एक्सपोर्टर रहा। इस दौरान 343.04 अरब डॉलर के बराबर ब्लैक मनी देश से बाहर भेजा गया। यही नहीं 2011 में तो भारत ने टॉप 3 में जगह बना ली। इस साल 84.93 अरब डॉलर ब्लैकमनी देश से बाहर गया और भारत ब्लैक मनी का तीसरा सबसे बड़ा एक्सपोर्टर बन गया।  क्राइम, करप्शन, टैक्स चोरी: विकासशील देशों से 2002-2011 के बीच बाहर गए ब्लैक मनी पर तैयार इस रिपोर्ट को वॉशिंगटन बेस्ड रिसर्च ऐंड एडवोकेसी ऑर्गनाइजेशन ग्लोबल फाइनैंशल इंटीग्रिटी (जीएफआई) ने तैयार किया है। 2011 में विकसित देशों से कुल 946.7 अरब डॉलर की रकम क्राइम, करप्शन और टैक्स चोरी जैसी वजहों के कारण ब्लैक मनी के रूप में देश से बाहर गई। यह रकम 2010 की तुलना में 13.7 पर्सेंट ज्यादा थी। 2010 में 832.4 अरब डॉलर ब्लैक मनी विकासशील देशों से निकाला गया था।  कंगाली में आटा गीला: जीएफआई ने इस बारे में डिटेल रिपोर्ट बुधवार को जारी की है। संस्थान के प्रेजिडेंट रेमंड बेकर के मुताबिक, दुनिया भर में जारी वित्तीय संकट के बीच एक ओर जहां दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाएं किसी तरह खुद को संभालने में जुटी थीं, वहीं अंडरवर्ल्ड हर साल ज्यादा से ज्यादा पैसा विकासशील देशों से ब्लैकमनी के रूप में विदेश भेज रहा था। उस समय गरीब और अमीर दोनों ही देश इकॉनमिक ग्रोथ के लिए जूझ रहे थे। मगर यह भी सच है कि दुनिया के सबसे गरीब देशों से कई ट्रिलियन डॉलर अनाम शेल कंपनियों, टैक्स हेवन सीक्रेसी और ट्रेड के बहाने होने वाली मनी लॉन्ड्रिंग के जरिए विदेश पहुंचाए जा रहे थे।  .9 ट्रिलियन डॉलर गंवाए : विदेश भेजे गए ब्लैक मनी में 2002 और 2011 के बीच बड़ा अंतर आ गया था। 2002 में जहां विकासशील देशों से 270.3 अरब डॉलर भेजा गया वहीं 2011 में यह आंकड़ा 832.4 अरब डॉलर तक पहुंच गया था। यानी विकासशील देशों ने इस दौरान 5.9 ट्रिलियन डॉलर ब्लैक मनी के रूप में गंवा दिए।
एशियाई मुल्क आगे : सबसे बड़ी बात कि ब्लैक मनी के दुनिया के टॉप 15 एक्सपोर्टरों में से 6 एशियाई देश - चीन, मलयेशिया, भारत, इंडोनेशिया, थाइलैंड और फिलिपींस हैं। वहीं अफ्रीका से दो देश नाइजीरिया और साउथ अफ्रीका हैं। यूरोप से चार देश - रूस, बेलारूस, पोलैंड और सर्बिया हैं। पश्चिमी गोलार्द्ध से दो देश - मेक्सिको और ब्राजील हैं। वहीं मिडिल ईस्ट और नॉर्थ अफ्रीकी इलाके से सिर्फ एक देश इराक का नाम इसमें शामिल है।
चीन की बढ़त : पिछले 10 साल में चीन ब्लैक मनी एक्सपोर्ट करने के मामले में दुनिया में टॉप पोजिशन पर आ चुका है। इस दौरान चीन से 1.08 ट्रिलियन डॉलर ब्लैक मनी विदेश भेजा गया। इसके बाद दूसरे नंबर पर रूस (880.96 अरब डॉलर), मेक्सिको (461.86 अरब डॉलर), मलयेशिया (370.38 अरब डॉलर) रहे।
जीडीपी से ज्यादा ब्लैक मनी की ग्रोथ : जीएफआई के चीफ इकॉनमिस्ट देव कार के मुताबिक, ब्लैक मनी का इतनी तेजी से बढ़ना बड़ी चिंता की बात है। पिछले एक दशक में विकासशील देशों से विदेश भेजे गए ब्लैक मनी में हर साल 10.2 पर्सेंट की ग्रोथ देखी गई है। जबकि इन देशों की जीडीपी ग्रोथ बहुत कम दर से बढ़ी है। इससे यह बात भी पता चलती है कि इन देशों की सरकारों के लिए ब्लैक मनी को रोकना अब कितना जरूरी हो गया है।
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नाम बता देने से क्या आ जाएगा काला धन?

25, OCT, 2014, SATURDAY 11:00:28 PM

पुष्परंजन
काले धन के साथ कई सारी त्रासद कथाएं जुड़ चुकी हैं। जर्मनी और फ्रांस दो ऐसे देश हैं, जिनके पास इसका जवाब नहीं कि उन्हें इसका लाइसेंस कैसे मिल गया कि काले धन से संबंधित चोरी की सीडी खऱीदें, और फि र उसे दुनिया की सरकारों को बेचें। अपने यहां अब तक किसी दल ने यह सवाल नहीं उठाया है कि क्या भारत सरकार चोरी का माल खऱीदने के लिए अधिकृत है? आधा सच बोलने वाले वित्त मंत्री अरूण जेटली, संप्रग के दौर के मंत्री के काले खाते की बात कर रहे हैं, लेकिन एनडीए के शासन में विदेश में कितना काला धन गया, यह सवाल वेताल की तरह डाल पर लटका हुआ है। 'ब्लैक मनी बमÓ में आधी-अधूरी सूचनाओं की रस्सी काफी लंबी लपेटी जा चुकी है। 
बस्तर जि़ले के जगदलपुर का क्षेत्रफ ल 60 वर्गमील है। ठीक इसी के बराबर ऑस्ट्रिया और स्विट्जऱलैंड के बीच बसा एक देश है, लिश्टेन्स्टाइन। लिश्टेन्सटाइन को लेकर अपने यहां भ्रांति है कि यह देश स्विट्जऱलैंड, या जर्मनी का हिस्सा है। वैटिकन सिटी और मोनाको के बाद मुझे तीसरा ऐसा मुल्क मिला था, जहां एक दिन में पूरे देश की परिक्रमा की जा सकती है। दुनिया में ऐसे सत्रह देश हैं, जिनके क्षेत्रफल दो सौ वर्गमील से कम हैं। क्षेत्रफल में छोटे देशों की एक जैसी विशेषता यह है कि उनके यहां बैंकों का ज़बरदस्त कारोबार है, और काले धन खपाने के कारण ये 'टैक्स हीबेनÓ के नाम से कुख्यात हैं। लिश्टेन्स्टाइन का राज परिवार दुनिया के छठे सबसे अमीर शाही घराने में शुमार होता है। यहां की जनता का जीवन स्तर शानदार है। इसी लिश्टेन्स्टाइन के शासनाध्यक्ष प्रिंस एलोइस ने जर्मन सरकार पर चोरी का आरोप लगाया था। 
लिश्टेन्स्टाइन के एलजीटी बैंक से एक सीडी की चोरी 2002 में हुई। बैंक की शिकायत पर हेनरिश कीबर नामक कर्मी, 2003 में पकड़ा गया। कीबर जमानत पर छूटा, और जर्मनी के बोखम नामक शहर में भूमिगत हो गया। 2006 में जर्मन खुफि या 'बीएनडीÓ ने उस सीडी के बदले कीबर को 42 लाख यूरो का पेमेंट किया था। इस सीडी में कोई 1400 लोगों के 'अकाउंट डिटेल्सÓ थे, जिनमें जर्मनों की संख्या 600 के आसपास थी। इस सीडी को भारत, ब्रिटेन, अमेरिका और बाक़ी देशों को बेचने के लिए जर्मनी 2007 में सक्रिय हुआ। 24 फ रवरी 2008 को ब्रिटेन ने 100 लोगों के बैंक डाटा पाने के लिए एक लाख पौंड जर्मनी को दिये। इस सीडी के लिए अमेरिका, आस्ट्रेलिया, फ ्रांस समेत यूरोप के दसियों देशों ने जर्मनी को करोड़ों यूरो दिये। 
लिश्टेन्स्टाइन के प्रिंस एलोइस 14 से 20 नवंबर 2010 को भारत आये, उन्होंने यहां कृषि बीज व्यापार को विस्तार देने के अलावा सरकार से बैंक से संबंधित सूचनाओं को साझा करने पर सहमति दी। 28 मार्च 2013 को लिश्टेन्स्टाइन और भारत के बीच 'कराधान सूचना आदान-प्रदान समझौताÓ (टीआईइए) स्विट्जऱलैंड की राजधानी बर्न में हुआ। प्रिंस एलोइस एक बार फिर अक्टूबर 2013 में भारत आये। मुख्य विषय काले धन से संबंधित सूचनाएं थीं, जिन्हें सार्वजनिक न करना मनमोहन सरकार की मज़बूरी थी। 
डाटा चोरी की खऱीद-बिक्री फ ्रांस ने भी की। 2007 में 'एचएसबीसी' बैंक की जिनेवा शाखा में हर्वे फेल्सियानी नामक एक सिस्टम इंजीनियर के बारे में पता चला वह ग़ायब है। फेल्सियानी पांच सीडी के साथ स्पेन में भूमिगत था, और वहीं से यूरोप, इजऱाइल की सरकारों से बैंक डाटा बेचने के लिए संपर्क साध रहा था। फेल्सियानी को मोसाद के जासूसों ने अगवा करने की कोशिश की थी। जेम्स बांड की फि ल्मों की तरह फेल्सियानी का भागना-छिपना जारी रहा। अंतत: जनवरी 2009 में हर्वे फेल्सियानी फ्रांसीसी खुफिया 'डीसीआरआईÓ के हत्थे चढ़ा। फ्रांस ने तीन चरणों की सुरक्षा देते हुए, उसे ऐसे ठिकाने पर भूमिगत कर दिया, जहां उस तक पहुंचना सबके लिए आसान नहीं था। इसके बाद शुरू हुआ सूचनाओं का सौदा। हर्वे फेल्सियानी की उन पांच सीडी में लगभग एक लाख तीस हज़ार खातेदारों का ब्योरा था, जिसे पाने के लिए दुनिया भर की सरकारें, उनकी खुफि या एजेंसियां सक्रिय हो गईं थीं। भारत को काले धन के बारे में दो अलग-अलग सूचनाओं के लिए जर्मनी और फ्र ांस की सरकारों को कितने करोड़ यूरो देने पड़े, इसे अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया है। संभव है बैंक सीडी की दलाली में कई लोगों ने अपने हाथ साफ  किए हों। 
ख़ैर, भारत और लिश्टेन्सटाइन के टैक्स इंफॉर्मेशन एक्सचेंज एग्रीमेंट(टीआईइए) में स्पष्ट लिखा गया है कि जांच और नाम की गोपनीयता बनी रहनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के हवाले से जिन 18 खातेदारों के नामों का खुलासा किया गया, उन सभी के अकाउंट्स लिश्टेंस्टाइन के एलजीटी बैंक में हैं, जिनमें से एक की मौत हो चुकी है। इन 18 खातेदारों के नामों को देखकर लगता है कि उनमें से अधिकांश लोगों के संबंध गुजरात से हैं, और ट्रस्ट चलाते हैं। सीबीआई, अपने बयान पर कायम रही कि स्विट्जऱलैंड के बैंकों में भारतीयों के 500 अरब डॉलर (लगभग 24.5 लाख करोड़ रुपये) काला धन जमा है। लेकिन स्विस नेशनल बैंक के अधिकारी बताते हैं कि भारतीयों के मात्र 14 हज़ार करोड रुपये ़(2.03 अरब स्विस फ ्रांक) स्विस बैंकों में जमा हैं। इस पर भरोसा न करने का कोई कारण नहीं नजऱ आता। क्या साढ़े चौबीस लाख करोड,़ और चौदह हज़ार करोड़ रुपये के बीच कोई मेल है? तो क्या सीबीआई, आयकर और रेवेन्यू इंटेलीजेंस के अधिकारी आल्प्स की वादियों में अल्पाइन के पत्ते गिनने जाते थे? यूरोप वाले इस पर हंसते हैं कि काले धन को लेकर भारतीय मीडिया में इतना भौकाल पैदा किया गया कि हर ओर भ्रम का वातावरण है। संपूर्ण सच नहीं बोलने वाले वित्त मंत्री अरूण जेटली पर कैसे भरोसा करें कि वह काले धन पर राजनीति नहीं कर रहे हैं? पूरा सच यह है कि एनडीए के राज में काला धन लिश्टेन्सटाइन और स्विट्जऱलैंड के बैंकों में ही नहीं, मारिशस से लेकर मोनाको तक, दुनिया के तमाम 'टैक्स हेवनÓ में गया है। तय मानिये कि काले धन के सभी 800 खातेदारों के नाम उछलते ही देश की राजनीति में एक बड़ा तूफ ान खड़ा होगा। राजनीतिक दल एक-दूसरे के कपड़े फाड़ेंगे, और उन्हें चंदा देने वाले अदृश्य हाथ धमकाएंगे। प्रश्न यह है कि यदि किसी भारतीय ने अपने पूरे ब्योरे के साथ स्विस बैंकों में खाता खोला हुआ है, और भारत सरकार को कर अदा नहीं किया है, तो क्या उस धन को जब्त कर भारत लाया जा सकता है? 
इस समय दुनिया भर में 70 से अधिक देश हैं, जो काले धन जमा करते हैं, जिन्हें 'टैक्स हेवनÓ कहा जाता है। इन्हें स्विट्जऱलैंड के उस अध्यादेश से प्रेरणा मिली थी, जिसके आधार पर ब्लैक मनी जमा करने वाले 20 प्रतिशत तक कर देकर, अपना काला धन सफेद कर सकते थे। स्विट्जऱलैंड ने प्रस्ताव भेजा था कि जर्मनी 50 अरब यूरो, और ब्रिटेन सात अरब पौंड लेकर काले धन को सफेद करने की अनुमति अपने नागरिकों को दे दे। स्विस बैंक 'यूबीएसÓ ने 52 हज़ार अमेरिकियों के काले धन को सफेद करने के लिए 78 अरब डॉलर देना स्वीकार कर लिया है। काले धन को सफेद करने की इस कार्रवाई को 'रूबिक डीलÓ कहा गया है। मोदी सरकार पर भारतीय उद्योग जगत का दबाव है कि काले धन की वापसी से बेहतर है कि स्विस बैंकों के भारतीय खाताधारकों पर जुर्माना लगाया जाए। जब अमेरिका, ब्रिटेन और जर्मनी की ताकतवर सरकारें 'रूबिक डीलÓ के लिए राजी हैं, तो भारत के आगे क्या विकल्प हो सकता है?
 भारत सरकार काले धन वालों को पकडऩे के लिए डबल टैक्सेशन एव्याएड एग्रीमेंट (डीटीएए) को भी एक कारगर हथियार मानती है। 88 देशों से भारत सरकार ने 'डीटीएएÓ समझौते किये हैं, जिनमें से एक स्विट्जऱलैंड भी है। 'डीटीएएÓ समझौते के तहत यदि किसी स्विस नागरिक का शेयर भारत की कंपनियों को ट्रांसफर होता है, तो उससे होने वाले पूंजी लाभ (कैपिटल गेन) पर भारत सरकार कर लगा सकती है। यही कराधान व्यवस्था स्विट्जऱलैंड में भारतीय निवेशकों के साथ लागू होती है। ऐसे में क्या स्विट्जऱलैंड इसकी अनुमति देगा कि भारतीय खाताधारकों के पैसे भारत सरकार सरकार वापिस ले ले? यदि ऐसा हुआ तो स्विस बैंकिंग व्यवस्था बर्बाद हो जाएगी, और पूरी दुनिया के खातेदारों का उस पर से भरोसा उठ जाएगा। 'डीटीएएÓ में यह भी संकल्प किया गया है कि खाताधारकों के नाम सार्वजनिक नहीं किये जाएंगे। इसके बरक्स वित्तमंत्री अरूण जेटली यह बयान देते हैं कि अदालत में नाम जाते ही यह सार्वजनिक हो जाएगा। क्या यह 'डीटीएएÓ समझौते के विरूद्ध नहीं है? राजनीति की बदनाम गली में आठ सौ काले धनपतियों के नाम अवश्य गूंजेंगे, पर देश में काला धन आ जाएगा, ऐसा शायद ही संभव है!


भ्रष्टाचार

भ्रष्टाचार के विरुद्ध ‘दुनिया भर में बढ़ रहा जनाक्रोश  
2014-01-29
यह शताब्दी विश्व के इतिहास में ‘उपनिवेशवाद’ के चंगुल से मुक्ति की शताब्दी के रूप में जानी जाएगी। फ्रांसीसियों, पुर्तगालियों और अंग्रेजों की गुलामी के शिकार दर्जनों देशों को इसी शताब्दी में मुक्ति मिली। इस शताब्दी में मात्र इंगलैंड की गुलामी से जो देश मुक्त हुए उनमें पाकिस्तान, भारत, चीन, श्रीलंका, सूडान, युगांडा, संयुक्त अरब अमीरात व मारीशस आदि शामिल हैं। उपनिवेशवाद की समाप्ति के बाद इन देशों को ‘स्वतंत्रता’ तो मिली लेकिन सुशासन नहीं मिला। इसी कारण अनेक देशों में वहां की जागरूक जनता ने कुशासन, भ्रष्टाचार और महंगाई के विरुद्ध आंदोलन छेड़े हुए हैं। यहां तक कि यू.पी.ए.-2 के शासनकाल में हुए अरबों रुपए के घोटालों की ओर से आंखें मूंदे रखने वाली कांग्रेस के नेता राहुल गांधी यह कहने को विवश हुए कि, ‘‘कांग्रेसियों का भ्रष्टाचार बर्दाश्त नहीं किया जाएगा।’’ पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्रियों राजा परवेज अशरफ तथा गिलानी के अलावा पूर्व राष्टपति जरदारी पर भ्रष्टाचार के आरोप में मुकद्दमे चल रहे हैं तथा चीन में भ्रष्टाचार के आरोपी व पीपुल्स पार्टी स्टैंडिग कमेटी के पूर्व अध्यक्ष जिआंन हुआ को अदालत ने मौत की सजा सुनाई है। उस पर रिश्वत में लाखों डॉलर नकद, तीन सोने की ईंटें व काफी सामान लेने का आरोप है। गत वर्ष जून में ब्राजील में परिवहन किरायों में वृद्धि, अत्यधिक टैक्सों और विश्व कप के आयोजन में भारी-भरकम घपलों को लेकर आंदोलन भड़क उठे और 15 नवम्बर को उस देश की सर्वोच्च संघीय अदालत ने 25 लोगों के विरुद्ध आरोप तय करके सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग, कैश फार वोट का षड्यंत्र रचने व अन्य आरोपों में गिरफ्तारी के आदेश जारी कर दिए। इनमें राष्टपति लुई द सिल्वा के पूर्व चीफ ऑफ स्टाफ व उसके 11 साथी भी शामिल थे। यह ब्राजील के इतिहास में भ्रष्टाचार के विरुद्ध तथा सार्वजनिक कोष के दुरुपयोग का अब तक का सबसे बड़ा मामला था। यूनान में भी सरकार द्वारा चलाए जा रहे बचत अभियान में हेराफेरी के विरुद्ध जन आंदोलन जारी है और अनेक सरकारी अधिकारियों तथा व्यापारियों के विरुद्ध भ्रष्टाचार के मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। अनेक धन कुबेरों को गिरफ्तार किया जा चुका है जिनमें एक बैंक का मुखिया भी शामिल है। आक्रोश की यह चिंगारी खाड़ी के देश ओमान में भी भड़क उठी है और वहां 20 सरकारी अधिकारियों व तेल उद्योग से संबंधित व्यापारियों के विरुद्ध रिश्वत लेने या देने के आरोप में मुकद्दमे चलाए जा रहे हैं। कभी गुलाम न रहने वाले देशों में भी जागरूकता की यह लहर चल पड़ी है। गत वर्ष तुर्की की राजधानी अंकारा में देश के 3 मंत्रियों को विभिन्न परियोजनाओं में भारी अनियमितताओं के चलते पद से त्यागपत्र देना पड़ा। प्रधानमंत्री रेसिप तैयप एरदोगान की सरकार के विरुद्ध 20,000 प्रदर्शनकारियों ने 17 जनवरी को भ्रष्टाचार को लेकर देश व्यापी प्रदर्शन किए। वे नारे लगा रहे थे, ‘‘इस गंदगी को क्रांति द्वारा ही दूर किया जा सकेगा। ये सब चोर हैं।’’ थाईलैंड में पूर्व प्रधानमंत्री थकसिन शिनावात्रा और उनके व्यापारिक साम्राज्य के भारी भ्रष्टाचार के विरुद्ध जारी जबरदस्त आंदोलन के बीच 2 फरवरी को चुनाव होने जा रहे हैं। प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि इसशताब्दी की शुरूआत से लेकर अभी तक शिनवात्रा और उनकी पार्टी के लोगों द्वारा अपनी सफलता यकीनी बनाने के लिए  भ्रष्टाचार का ही सहारा लिया गया  है।  शिनावात्रा की बहन यिगलक 2012 से इस देश की प्रधानमंत्री है और इस बार भी उसी के जीतने की संभावना है लेकिन प्रदर्शनकारियों ने शिनवात्रा के विरुद्ध आक्रोश को ‘जन आंदोलन’ में बदल दिया है और सेना तथा लोकतंत्र वादी संस्थाओं से अपने आंदोलन में सहयोग करने का आह्वान किया है।  उक्त देशों की जागरूक जनता द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध थामी गई इस मशाल की लपटें अभी और ऊंची उठेंगी और यह तय है कि ये लपटें विश्व को कोढ़ की तरह खोखला कर रहे भ्रष्टाचार को जला कर राख करने में किसी सीमा तक अवश्य सफल होंगी।

जड़ पर हमला हो  
 Mon, 06 Jan 2014

घूस के जरिए अकूत धन कमाने वाले लोग पकड़ में आ रहे हैं। भ्रष्ट अफसरों के घर गाहे-बगाहे छापे पड़ते रहते हैं। इस दौरान इतना अवैध धन मिलता है कि आम लोग हैरत में पड़ जाते हैं। घूस लेने वालों के बारे में यह प्रचलित अवधारणा है कि पकड़ में आने पर ही उनके पाप का पता चल पाता है। इसके पहले तक सब साधु बने रहते हैं। अब जबकि सरकार घूसखोरी रोकने के प्रति सख्त है, जितने कम लोग पकड़ में आ रहे हैं, उससे यह कल्पना करना बेमानी ही होगी कि राज्य से भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा। सवाल उठता है कि कोई अधिकारी किसी खास जगह पर जाने को बेताब क्यों रहता है। लोग सरकारी सेवा में आते हैं। काम के एवज में उन्हें वेतन मिलता है। दूसरी सुविधाएं मिलती हैं। वे करार पर दस्तखत करके आते हैं कि जरूरत के हिसाब से राज्य के किसी भी हिस्से में उनका तबादला किया जा सकता है। लेकिन, व्यवहार में ऐसा होता है क्या? ठीक इसके उलट होता है। मालदार विभाग में तैनात कर्मी नौकरी शुरू करने के अगले ही दिन उन जगहों पर तैनाती के लिए जान लगा देता है, जहां रिश्वत की गुंजाइश है। मसलन, कोई डीटीओ जीटी रोड वाले इलाके में पोस्टिंग के लिए क्यों परेशान रहता है। खनन विभाग के अफसरों को मृत पहाड़ और बालू निकालने वाला इलाका क्यों चाहिए। राजधानी का खास थाना क्यों किसी थानेदार को प्रिय है। उत्पाद महकमा के अफसरों को राजधानी ही क्यों अधिक पसंद है और इंजीनियर साहब क्यों हमेशा कार्य विभाग को ही अपना ध्येय मानते हैं। यह भी कि ट्रांसफर-पोस्टिंग के मौसम में किस खास आदमी के यहां पैरवीकारों की अधिक भीड़ जुटती है। अप्रिय सच यह है कि मनचाही पोस्टिंग की इच्छा में जनसेवा का लेशमात्र भाव नहीं रहता है। क्या भाव रहता है, इसे वे लोग अच्छी तरह जानते हैं, जिनके हाथों में ट्रांसफर-पोस्टिंग की कमान है।  अगर ट्रांसफर-पोस्टिंग को पारदर्शी बना दिया जाए तो घूसखोरी पर काफी हद तक काबू पाया जा सकता है। तब किसी अफसर को यह फिक्र नहीं रहेगी कि लगाकर आए हैं तो लागत से अधिक हासिल करना हमारा अधिकार है। लेकिन, इस माध्यम को पारदर्शी बनाना एक आदर्श कल्पना ही है। इसे सरजमीन पर उतारना मुश्किल है। इसलिए कि पूरा राजनीतिक तंत्र ट्रांसफर-पोस्टिंग और ठेके की कमाई से ही नियंत्रित हो रहा है। यही तंत्र कुल मिलाकर कार्यपालिका पर अपना मालिकाना हक भी रखता है। आज मुख्यधारा में कौन सी राजनीतिक पार्टी है जो आम जनता के बीच जाकर रुपये-दो रुपये चंदा बटोरती है। जबकि हरेक राजनीतिक दल के कार्यक्रम में लाख-करोड़ ऐसे खर्च हो जाते हैं मानो उनके लिए इतनी बड़ी रकम धेला-पाई के बराबर है। यह अच्छी बात है कि कुछ भ्रष्ट अधिकारी पकड़ में आ रहे हैं। मगर, तंत्र में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए यह काफी नहीं है। अगर राजनीतिक नेतृत्व ईमानदार है, वह भ्रष्टाचार को सचमुच रोकना चाहता है तो उसे फुनगी के बदले जड़ पर प्रहार करना होगा। बरना छापे, बरामदगी, गिरफ्तारी और संपति जब्ती के कर्मकांड होते रहेंगे। पब्लिक अपने काम के लिए घूस भी देगी, सरकार और उसके मुलाजिमों के करतब का मजा भी लेती रहेगी।


भ्रष्टाचार की अर्थव्यवस्था  
 Tue, 08 Jan 2013

देशवासी हर नेता को भ्रष्ट मानते हैं। ऐसे में उदास होने की जरूरत नहीं है। हमें भ्रष्ट नेताओं में सही नीतियां बनाने वाले को समर्थन देना चाहिए। यदि घूस लेने वाले और गलत नीतियां बनाने वाले के बीच चयन करना हो तो मैं घूस लेने वाले को पसंद करूंगा। कारण यह कि घूस में लिया गया पैसा अर्थव्यवस्था में वापस प्रचलन में आ जाता है, लेकिन गलत नीतियों का प्रभाव दूरगामी और गहरा होता है, जैसे सरकार विदेशी ताकतों के साथ गैर-बराबर संधि कर ले, गरीब के रोजगार छीनकर अमीर को दे दे। ऐसे में देश की आत्मा मरती है और देश अंदर से कमजोर हो जाता है।  आम तौर पर माना जाता है कि भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ता है। मसलन भ्रष्टाचार के चलते सड़क कमजोर बनाई जाती है, जिससे वह जल्दी टूट जाती है और ढुलाई का खर्च अधिक पड़ता है। इस फार्मूले के अनुसार भारत और चीन की विकास दर कम होनी चाहिए थी, क्योंकि ये देश ज्यादा भ्रष्ट हैं, परंतु वस्तुस्थिति इसके ठीक विपरीत है। भारत और चीन की विकास दर अधिक है, जबकि ईमानदार देशों की विकास दर या तो ठहर गई है या फिर बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रही है। जाहिर है कि भारत एवं चीन में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव नहीं पड़ रहा है। प्रश्न है कि भारत में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव क्यों नहीं दिख रहा है?  भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव इस बात पर निर्भर करता है कि इससे प्राप्त रकम का उपयोग किस प्रकार किया जाता है। मान लीजिए एक करोड़ रुपये की सड़क बनाने के ठेके में से 50 लाख रुपये भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए। सड़क घटिया क्वालिटी की बनी। इस भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव पड़ा। अब प्रश्न उठता है कि घूस की 50 लाख की रकम का उपयोग किस प्रकार हुआ। इस रकम को ऐशोआराम में उड़ा दिया गया अथवा शेयर बाजार में लगा दिया गया? यदि रकम को शेयर बाजार में लगाया गया तो भ्रष्टाचार का आर्थिक विकास पर दुष्प्रभाव कुछ कम हो जाता है और वह उत्पादक होकर आर्थिक विकास में सहायक बन जाता है। मसलन किसी सरकारी विभाग के इंजीनियर ने 50 लाख रुपये के शेयर अथवा बांड खरीद लिए। कंपनी ने इस रकम से नहर बनाई। अर्थव्यवस्था पर अंतिम परिणाम यह पड़ा कि सड़क घटिया बनी, किंतु इस पैसे से नहर बनी। सड़क के ठेके में हुए भ्रष्टाचार का दुष्परिणाम नहर बनने से कुछ कम हो जाता है।  दक्षिणी अमेरिका के देशों एवं भारत में यह अंतर साफ दिखता है। दोनों देशों में घरेलू भ्रष्टाचार व्याप्त है। दक्षिण अमेरिका के नेताओं ने घूस की रकम को स्विट्जरलैंड के बैंकों में जमा करा दिया। नतीजा यह हुआ कि दक्षिणी अमेरिका की विकास दर में गिरावट आई, परंतु भारत के भ्रष्ट नेताओं ने स्विस बैंकों में जमा कराने के साथ-साथ घरेलू उद्यमियों के पास भी यह रकम जमा कराई। लखनऊ के एक उद्यमी ने बताया कि उत्तर प्रदेश के किसी पूर्व मुख्यमंत्री ने 20 करोड़ रुपये जमा कराए थे। मुख्यमंत्री के इस भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था पर दुष्प्रभाव नहीं पड़ता है। देश की पूंजी सरकारी सड़क के स्थान पर निजी कारखाने में लग गई, जो कि आर्थिक विकास में सहायक हुई।  यदि घूस की रकम का निवेश किया जाए तो अनैतिक भ्रष्टाचार का आर्थिक सुप्रभाव भी पड़ सकता है। मान लीजिए सरकारी निवेश में औसतन 70 फीसदी रकम का सदुपयोग होता है, जबकि निजी निवेश में 90 फीसदी रकम का। ऐसे में यदि एक करोड़ रुपये को भ्रष्टाचार के माध्यम से निकाल कर निजी कंपनियों में लगा दिया जाए तो 20 लाख रुपये का निवेश बढ़ेगा।  अर्थशास्त्र में एक विधा बचत की प्रवृत्ति के नाम से जानी जाती है। अपनी अतिरिक्त आय में से व्यक्ति जितनी बचत करता है उसे बचत की प्रवृत्ति कहा जाता है। गरीब की 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 90 रुपये की खपत करता है और 10 रुपये की बचत करता है। तुलना में अमीर को 100 रुपये की अतिरिक्त आय हो जाए तो वह 10 रुपये की खपत करता है और 90 रुपये की बचत करता है। इस परिस्थिति में अमीर इंजीनियर द्वारा गरीब जनता के शोषण का अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। मान लीजिए, विद्युत विभाग के इंजीनियर ने गरीब किसान से 100 रुपये की घूस ली। गरीब की आय में 100 रुपये की गिरावट आई जिसके कारण बचत में 10 रुपये की कटौती हुई, परंतु अमीर इंजीनियर ने 100 रुपये की घूस में 90 रुपये की बचत की। इस प्रकार घूस के लेन-देन से कुल बचत में 80 रुपये की वृद्धि हुई। अमीर द्वारा गरीब का शोषण सामाजिक दृष्टि से गलत होते हुए भी आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो गया।  इस विश्लेषण का उद्देश्य भ्रष्टाचार को सही ठहराना नहीं है। नि:संदेह भ्रष्टाचार अनैतिक है। यदि सरकारी विभाग के इंजीनियर ईमानदारी से सड़क बनाएं और प्रस्तावित रकम का सदुपयोग करें तो आर्थिक विकास दर उच्चतम होगी। यहां हमारा चिंतन इस मुद्दे पर है कि भ्रष्ट होने के बावजूद हमारी विकास दर ऊंची क्यों है? इस प्रश्न का उत्तर है कि हमारी मानसिकता भ्रष्टाचार से मिली रकम को निवेश करने की है। इस कारण भ्रष्टाचार का आम जनता पर दुष्प्रभाव पड़ने के बावजूद अर्थव्यवस्था पर सुप्रभाव पड़ता है। गरीब और गरीब हो जाता है, परंतु अमीर को निवेश के लिए रकम मिल जाती है।  गांधीजी कहते थे कि बुजदिली से हिंसा अच्छी है और हिंसा से अहिंसा अच्छी है। इसी प्रकार भ्रष्टाचार को भी समझना चाहिए। भ्रष्ट अय्याशी की तुलना में भ्रष्ट निवेश अच्छा है और भ्रष्ट निवेश से ईमानदारी अच्छी है। भारत द्वारा भ्रष्ट निवेश करने से भ्रष्टाचार के बावजूद तीव्र आर्थिक विकास हो रहा है। भ्रष्ट अय्याशी के कारण अफ्रीका एवं दक्षिण अमेरिका के देशों में भ्रष्टाचार का दुष्प्रभाव दिखता है। परंतु सर्वश्रेष्ठ स्थिति ईमानदारी की है। जिस प्रकार गांधीजी ने हिंसा छोड़कर अहिंसा अपनाने को कहा था, उसी प्रकार हमें भ्रष्ट निवेश छोड़कर ईमानदारी को अपनाना चाहिए।
[डॉ. भरत झुनझुनवाला: लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं]
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फिर वही फटकार   
Wednesday,Apr 23,2014


यह संभवत: केंद्र सरकार को भी स्मरण करना कठिन होगा कि उसे काले धन के मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट कितनी फटकार लगा चुका है। एक बार फिर उसने केंद्र सरकार से पूछा कि उसके आदेश का पालन क्यों नहीं किया गया? यह आश्चर्यजनक है कि सुप्रीम कोर्ट ने तीन वर्ष पहले कुछ सूचनाएं और दस्तावेज याचिकाकर्ता को देने के आदेश दिए थे, लेकिन उसकी ओर से ऐसा करने से इन्कार किया गया। काले धन के मामले में इसकी भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि केंद्र सरकार विशेष जांच दल के गठन में भी आनाकानी कर रही है। यह विचित्र है कि एक ओर वह काले धन का पता लगाने, उसके कारोबार पर अंकुश लगाने आदि पर अपनी ओर से कोई ठोस कदम नहीं उठा रही है और दूसरी ओर इस सिलसिले में विशेष जांच दल के गठन के सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध भी कर रही है। इस सबसे यदि कुछ स्पष्ट हो रहा है तो यही कि केंद्रीय सत्ता काले धन को लेकर गंभीर नहीं। काले धन के मामले में गंभीरता का परिचय न देने का सीधा मतलब है भ्रष्टाचार से मुंह फेरे रहना। इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती कि सरकार यह दावा करते नहीं थकती कि वह काले धन एवं भ्रष्टाचार के अन्य तौर-तरीकों से निपटने के लिए प्रतिबद्ध है, लेकिन उसकी प्रतिबद्धता यथार्थ रूप में नजर नहीं आती। कोई आश्चर्य नहीं कि इसी सब के चलते उसकी छवि रसातल में पहुंच गई है और देश-दुनिया को यही संदेश गया है कि भारत सरकार काले धन को लेकर सजग और सक्रिय नहीं। अब तो ऐसा भी लगता है कि इस संदर्भ में उसे सुप्रीम कोर्ट से जो बार-बार फटकार मिल रही है उससे भी वह बेपरवाह हो चुकी है।
यह लगभग तय है कि केंद्र सरकार के पास सुप्रीम कोर्ट के तीन वर्ष पुराने आदेश पर अमल न करने के संदर्भ में कोई न कोई तर्क होगा। ध्यान रहे कि ऐसे ही तर्क उसने घपले-घोटालों पर लगाम न लग पाने के संदर्भ में भी दिए हैं। अब इसकी कहीं कोई संभावना नजर नहीं आती कि संप्रग सरकार काले धन के मामले में कुछ कर सकेगी, क्योंकि उसके पास समय ही नहीं शेष रह गया है। बावजूद इस सबके इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि काला धन एक बड़ा मुद्दा बन गया है और आने वाली सरकार इस मुद्दे पर उस तरह से आंख नहीं बंद रख सकती जैसी कि मौजूदा सरकार ने रखी। कुछ देशों ने यह दिखाया है कि यदि इच्छाशक्ति हो तो काले धन पर प्रभावी ढंग से अंकुश लग सकता है। ऐसी ही इच्छाशक्ति भारत की भावी सरकार को भी दिखानी होगी, क्योंकि यह एक ऐसा मामला बन गया है जिसे ओझल नहीं किया जा सकता। काले धन के मामले में केवल यह तर्क देते रहने से काम नहीं चलने वाला कि अंतरराष्ट्रीय कानूनों की बंदिशों के चलते केंद्र सरकार के हाथ बंधे हुए हैं। इस तर्क की आड़ लेने का इसलिए कोई मतलब नहीं, क्योंकि यह जगजाहिर है कि कुछ देशों ने किस तरह इन्हीं परिस्थितियों में उल्लेखनीय काम किया और काले धन पर अंकुश लगाने में बड़ी हद तक सफल भी रहे। यह आवश्यक है कि भारत सरकार भी इस मामले में दिखावटी कार्रवाई के बजाय ठोस पहल करती हुई दिखाई दे।
[मुख्य संपादकीय]
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